कल मैंने मोहन श्रोत्रिय सर की वाल पर उनका एक व्यक्तव्य पढ़ा, पिछले कई दिनों से मैंने मोहन सर को इसी तरह के मुद्दों को उठाते और बराबर उन पर अपनी असहमति दर्ज करते देखा है! मोहन सर ने हमेशा कविता को लिंग भेद और वरिष्टता के पूर्वाग्रह से अलग रखके देखने की हिमायत की है! मेरे लिए और मेरे जैसे अनेक नवोदित लोगों के लिए, जो बराबर लिखते हुए कुछ सार्थक करने की चाह में संघर्षरत हैं मोहन सर एक ऐसे वटवृक्ष की तरह हैं, जिसकी छाह में नवांकुर बचे रहते हैं पूर्वाग्रहों से ग्रसित आलोचनाओं की कड़ी धूप से..... मोहन सर ने हमेशा लेखन को स्त्री लेखन या पुरुष लेखन जैसे अलंकारों से मुक्त करने का आग्रह किया है! कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उनकी तब होती है जब नए कवियों कि कविताओं को इसलिए खारिज कर दिया जाता है कि लोगों को लगता है कि नए लोग वे कविता के प्रति गंभीर नहीं हैं, या लेखन को सामाजिक सरोकारों से नहीं जोड़ा गया, या कविता में वो गहराई या जटिलता नहीं है जो पुराने समय के कवियों के पास थी!
उनके शब्दों में "क्या पिछली पीढ़ी कवि कर्म को लेकर आज के नवागंतुक कवियों की तुलना में सचमुच अधिक गंभीर थी? यदि हां, तो क्या यह हर कविता लिखने वाले के बारे में सत्यनिष्ठा से और प्रमाण सहित कहा जा सकता है? यानि उस दौर में रचनाएं पूरी पकने के बाद ही लोगों के सामने आती थी? हो सकता है कि मैं ग़लत होऊं, पर उससे भी पहली पीढ़ी में जब छंद-सिद्ध कवि छाये हुए थे, तो क्या "तुक्कड़" कवि कोई उछल-कूद मचाते नहीं दिखते है. मेरी समझ यह है - हो सकता है आपके लिए इसके कोई मायने न हों - कि हर दौर में अच्छी और खराब कविता साथ-साथ लिखी जा रही होती है. समय गुज़रने के साथ बहुत कुछ छन जाता है, समय की छलनी में. आज की कविता को लेकर चलने वाली किसी भी चर्चा में महिला कवियों को ( "रसोई में छोंक लगाते हुए कविता रच देने का उल्लेख करने की क्या ख़ास ज़रुरत आ पड़ती है?) एक अलग श्रेणी बना कर क्यों रख दिया जाता है"? कविता का अच्छा/बुरा होना कबसे लैंगिक आधार पर तय होने लगा? सरोकारों की बात भी वायवी ढंग से क्यों की जानी चाहिए? क्या हमने कभी यह जानने/ बताने की कोशिश की है कि कविता लिखते हुए पुरुष क्या कर रहे होते हैं? कसौटी तो दोनों के लिए एक ही होनी चाहिए. नहीं? सोच कर देखिए."
"सईद अयूब ने इस स्टेटस पर टिप्पणी करते हुए यह महसूस किया कि मैंने नाराज़गी व्यक्त की. चूंकि ऐसा नहीं है, मैंने अपना दृष्टिकोण और विस्तार से उनके सामने रखा. उसे मैं यहां भी उद्धृत कर रहा हूं क्योंकि उनके स्टेटस की 'जड़ यहां है." सईद, मैंने कोई नाराज़गी नहीं, बल्कि आशुतोष जी के स्टेटस पर महिला कवियों संबंधी अंश से असहमति व्यक्त की थी, अपने स्टेटस में. तो ज़ाहिर है कि मेरे स्टेटस का आधार कहीं वहीं टिका है. मैं निजी तौर पर, कविता में या किसी भी अन्य व्यवसाय (profession) में श्रेष्ठता की कसौटीको लिंग- आधारित रूप में स्वीकार नहीं करता. पूर्वाग्रह हो सकते हैं लोगों के. ऐसा कैसे हो सकता है कि स्त्री और पुरुष के अनुभव संसार में कोई बुनियादी फ़र्क़ हो? सवाल चीज़ों को देखने और उन्हें अन्य चीज़ों से जोड़ कर देखने का तो हो सकता है, होना भी चाहिए. लेकिन यहां भी एक पेंच (catch) है. अपने अनुभवों और अनुभूतियों को सर्विक रूप देना फिर कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो पुरुष की ही विशिष्टता हो, एकांतिक रूप से. कल कोई यह कहे कि फलां कवि हल्दी-मिर्च की पुडिया बांधते-बांधते कविता लिख लेता है, तो यह कविता पर नहीं, कवि के साहित्येतर काम पर टिप्पणी है. आपको क्या लगता है? मंगलेश की पीढ़ी के सामाजिक सरोकारों का ज़िक्र करते हुए आशुतोष जी लिखते हैं, मेरे स्टेटस पर ही, कि उस पीढ़ी का ज़ोर चीज़ों की सुंदरता को बचाने पर था. मेरा सवाल है, कि क्या सबका? कोई टकसाली कविताएं तो लिखी नहीं जा रही थीं? ऐसा तो कभी नहीं होता. रचनाएं कच्ची, अध-पकी, ढंग दे सिकी हुई, और जली हुई हो सकती हैं, रोटी की तरह. पहली और चौथी को खारिज कर दीजिए, दूसरी को मार्ग दर्शन और तीसरी को शाबासी/ प्रोत्साहन दीजिए. हार पुराणी पीढ़ी को अपने बारे में न जाने क्या क्या कहने की आदत होती है. इससे बचें. पिताओं के इस रुख की वजह से मैंने पुत्रों को पिता के प्रति शत्रु भावविक्सित करते हुए देखा है, और परिणाम स्वरूप परिवारों को बिखरते. कविता के क्षेत्र में तो यह बिल्कुल नहीं चलना चाहिए. कविता कैसी लगी- अच्छी या अच्छी नहीं, तो कह डालिए, और कृपावंत होकर यह भी बताते चलिए कि क्यों? मैं समझता हूं कि ऐसा हो सके, तो कवि और आलोचक के बीच अनावश्यक वैमनस्य का भाव तिरोहित होने लगेगा.?" आलोचक को भी तो अपना धर्म मित्रवत ही निभाना चाहिए, क्योंकि इसी में कविता का भला है,और आलोचना की प्रतिष्ठा भी."
मेरे ख्याल से जब तक उनके जैसे वरिष्ठ रचनाकार स्वस्थ आलोचना के साथ गंभीर लेखन से सरोकार रखते हैं, कविता का भविष्य उतना ही सुरक्षित है जितना कल था! कविता को लिंग भेद से परे रखा जाना अंततः कविता के ही हित में जायेगा! नए रचनाकारों को उनके मार्गदर्शन और सार्थक साहित्य के हित में उनकी सक्रियता के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए ताकि निष्पक्ष होकर केवल और केवल विशुद्ध कविता रची जा सके!
सार्थक, सामयिक, यथार्थ.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर भी आप सादर आमंत्रित हैं.
बहुत अच्छा, सारगर्भित, और सार्थक....
ReplyDeleteकवायद KAWAYAD
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Comrade Kuldeep Singh Poonia
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कवायद KAWAYAD
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जनवादी जन मंच से जरुर जुड़े janvaadi jan manch
मैं मोहन श्रोत्रिय जी की बात का समर्थन करता हूं - रचना को हमेशा उसकी रचनात्मक गुणवत्ता से ही देखा-परखा जाना चाहिए, लिंग-भेद या वय-वरिष्ठता का आलोचना में कोई महत्व नहीं है।
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है आपने अंजू जी.. किसी भी व्यवसाय में लिंग भेद का कोई मतलब नहीं बनाता .. सिर्फ जहां शारीरिक शक्ति प्रदर्शन का क्षेत्र अलग है वही अलग है .. कविता की जहां तक बात है अधपकी को और पूर्ण पकी कविता को मार्गदर्शन और प्रोत्साहन दिया जाए यही सही है.. अपने माहोल से मिले अनुभव का अहसास कविता के रूप में ढाला जा सकता है कविता की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुवे... चाहे स्त्री हो या पुरुष .. सादर
ReplyDeleteपूरी तरह इतेफ़ाक रखती हूँ मैं मोहन जी की बात से और आप से !
ReplyDeleteस्त्रियों को क्यों सिर्फ सीमित कसौटियों पर परखा जाता है !
मस्तिष्क का क्रियान्वन संरचना तो स्त्री और पुरुष दोनों की ही एक सी ही है तो फिर कोई मायने नहीं है दोनों की रचनाशीलता को अलग अलग आँकने के .......