डायलाग - अप्रैल, 2012
अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर
४/६, सिरीफोर्ट इनस्ट. एरिया, दिल्ली.
" डायलाग "
अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर के सौजन्य से माह के आखिरी शनिवार को कविता को समर्पित कार्यक्रम " डायलाग " का आयोजन किया जाता है! अकादमी की अध्यक्ष हैं वरिष्ठ लेखिका अजीत कौर! उल्लेखनीय है इस बार का डायलाग प्रगतिशील कवि 'एंडरिच रिच' को समर्पित है, जिनका हाल ही में देहांत हुआ! सुप्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह उनके जीवन और काव्य-यात्रा पर एक लेख पढ़ेंगी और उनकी कुछ कविताओं का पाठ भी करेंगी! कार्यक्रम की रूप- रेखा इस प्रकार है :
स्थान : द म्यूजियम हॉल, अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर, 4/6 , सिरीफोर्ट इनस्ट. एरिया, (नजदीकी मेट्रो स्टेशन ग्रीन पार्क से वाकिंग डिस्टेंस), नयी दिल्ली.
दिनांक : २८ अप्रैल 2012
टाइम : 5 :00 शाम से 8 :00 बजे तक
कार्यक्रम :
प्रथम सत्र : ५:०० बजे से ५:३० बजे तक
एंडरिन रिच : एक प्रगतिशील कवयित्री
सुप्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह ने एंडरिन रिच के जीवन और काव्य-यात्रा पर अपने विचार रखने की सहमति दी है ! वे उनकी कुछ कविताओं का पाठ भी करेंगी!
काव्य-पाठ
भाग लेने वाले कवि इस प्रकार हैं
डॉ. सुनीता कविता, सुधांशु फिरदौस, पूनम मटिया, नोरिन शर्मा, आकृति भार्गव, अजय कुमार राय, शिखरदीप अरोरा, रंगनाथ राय
कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगी वरिष्ठ कवयित्री रति सक्सेना, सञ्चालन करेंगे, कवि समीक्षक और संयोजक मिथिलेश श्रीवास्तव और धन्यवाद ज्ञापन पढने वाले हैं देशबंधु कॉलेज के प्राध्यापक कवि मनोज कुमार सिंह!
डायलाग से जुड़े और काव्य पाठ करने वाले कुछ कवियों का परिचय इस प्रकार है :
अंजू शर्मा
अंजू शर्मा दिल्ली विश्वविध्यालय के सत्यवती कॉलेज से वाणिज्य स्नातक हैं! ‘स्त्री मुक्ति’ से जुड़े काव्य लेखन में एक चर्चित नाम हैं! विभिन्न काव्य-गोष्ठियों में सक्रिय भागेदारी! अनेक पत्रिकाओं व वेब पत्रिकाओं में कविताएं व लेख प्रकाशित! बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित काव्य संकलन "स्त्री होकर सवाल करती है' में कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं! संप्रति: ‘अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर’ के कार्यक्रम 'डायलॉग' और संस्था 'लिखावट' के आयोजन 'कैंपस में कविता' और 'कविता पाठ' से बतौर कवि और रिपोर्टर भी जुडी हुई हैं! कविताओं के ब्लॉग 'उड़ान अंतर्मन की" का संपादन करती हैं और कई पत्रिकाओं में साहित्यिक कॉलम भी लिख रही हैं!
उनकी कुछ कवितायेँ जो वे डायलाग में पढने वाली हैं इस प्रकार हैं:
वे आँखें
उफ़ वे आँखें,
एक जोड़ा, दो जोड़ा या
अनगिनत जोड़े,
घूरती हैं सदा मुझको,
तय किये हैं
कई दुर्गम मार्ग मैंने,
पर पहुँच नहीं पाई उस दुनिया में,
जहाँ मैं केवल एक इंसान हूँ
एक मादा नहीं,
वीभत्स चेहरे घेरे हैं मुझे,
और कुत्सित दृष्टि का
कोई विषबुझा बाण
चीरता है मेरी अस्मिता को,
आहत संवेदनाओं की
कातर याचना से
कम्पित हो उठता है
मेरा समूचा अस्तित्व,
कितना असहज है
उस हिंस्र पशुवन
से अनदेखा करते
गुजरना
दुष्यंत की अंगूठी
प्रिय,
हर संबोधन जाने क्यूँ
बासी सा लगता है मुझे,
सदा मौन से ही
संबोधित किया है तुम्हे,
किन्तु मेरे मौन और
तुम्हारी प्रतिक्रिया के बीच
ये जो व्यस्तता के पर्वत है
बढती जाती है रोज़
इनकी ऊंचाई,
जिन्हें मैं रोज़ पोंछती हूँ
इस उम्मीद के साथ कि किसी रोज़
इनके किसी अरण्य में शकुंतला मिलेगी दुष्यंत से ,
क्यों नहीं सुन पाते हो तुम अब
नैनों की भाषा
जिनमे पढ़ लेते थे
मेरा अघोषित आमंत्रण,
मेरी बाँहों से अधिक घेरते हैं तुम्हे
दुनिया भर के सरोकार,
और प्रेम के बोल ढल गए हैं
इन वाक्यों में
'शाम को क्या बना रही हो तुम"
तुम्हारे प्रेम पत्र जिन्हें सहेजकर
रखा है मैंने,
क्यों पीले पड़ते जा रहे हैं दिनोदिन,
और लम्बी होती जा रही है
राशन की वो लिस्ट,
ऑफिस जाते समय भूल जाते हो कुछ
और मैं बच्चों के टिफिन की
भूलभुलैया में उलझी बस मुस्कुरा
देती हूँ,
फिर किसी दिन फ़ोन पर
इतराकर पूछते हो,
"याद आ रही है मेरी"
और मैं अचकचा कर फ़ोन को
देखती हूँ ये तुम्ही हो
जो कल दुर्वासा बने लौटे थे,
और शकुन्तला झुकी थी श्राप की
प्रतीक्षा में,
फिर खो जाती हूँ मैं
रात के खाने और सुबह की
तैयारियों के घने जंगल में
सोते हुए एक छोटे बालक
से लगते हो तुम,
और तुम्हारी लटों को संवारते हुए
तुम्हे चादर ओढ़ते हुए,
अचानक पा लेती हूँ मैं
दुष्यंत की अंगूठी......
नोरिन शर्मा
पेशे से शिक्षिका नोरिन शर्मा दिल्ली में जन्मी और पली बढ़ी! बचपन से ही वे नृत्य, ड्रामा, वाद-विवाद, और कविता के क्षेत्र में सक्रिय रही हैं! श्री राम सेण्टर से अभिनय में कोर्स भी कर चुकी हैं और कई नाटकों और विडियो फिल्मों में अभिनय भी किया है! वर्तमान में वे अहलकान पब्लिक स्कूल में पिछले choubis वर्षों से हिंदी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत है! उनकी कवितायेँ अनेक पात्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं! दूरदर्शन व् उपग्रह केंद्र पर अनेकाएक कविता कार्यक्रमों में शिरकत कर चुकी हैं! दो काव्य संग्रह सम्मिलित रूप से प्रकाशित हैं - अंधेरों के खिलाफ और चतुरंगिनी! उन्होंने कक्षा पहली से लेकर आठवीं तक के लिए व्याकरण पुस्तकें 'उल्लास' नामक श्रृंखला के अंतर्गत लिखी हैं!
- आईये पढ़ते हैं नोरिन जी की एक कविता.....
प्रतिबंधित क्षेत्र
पसर गया तोतली ज़ुबान पर
सूई मैं धागा डालता हाथ ठिठक गया
-वहीं चबूतरे पर-|
रात को आँगन मैं बैठ
खाट के पायताने की रस्सिया गिनते-गिनते
च्छुटकी ने फिर अपना प्रश्न दोहराया....
चूल्हे की बची आँच को तसले से ढांपती माँ को
उसे बहलाने का नुस्ख़ा मिला|
''देखो च्छुटकी तुम उहाँ रही थी
हमारी गोद मा आने से पहले''
इशारा जगमगाते तारों पर था
नन्ही ताली की गूँज से सन्नाटा चिटक गया|
गला खंखारती भारी आवाज़ की फटकार से
अनायास ओसारा घुट सा गया और
सिर पर पल्लू संभालती माँ के आँचल
में समाई च्छुटकी की चुहल ने वहीं दम तोड़ दिया...
सयानी दीदी ने चोटी का रीबन बाँधते-बाँधते
तथ्यों से परिचित कराया
माँ के गर्भ की और इशारा कर
च्छुटकी को समझाया.........
साथ ही प्रश्न करने के दुस्साहस
पर प्यार से तमाचा लगाया |
...अब च्छुटकी भी सयानी हो चली है
माँ और दीदी की तरह कभी प्रश्न नहीँ करती है
प्रश्नों के प्रतिबंधित क्षेत्र में
कभी कदम नहीं रखती है..
आज छुटके भैया के जूते के तस्मे बाँधते-बाँधते
उसे तथ्यों से परिचित करा रही है
प्रश्न न करने के सारगर्भित वाक्य दोहरा रही है
तभी
चारदीवारी को सहमा दिया
फिर से उनकी नें सबको हिला दिया है....
''वो लड़का है'' की गूँज
उसके कानों को पिघला रही है
पिता को निहारे चली जा रही है
आँखो में ढेरों प्रश्नों की कतारें
बहने को फड़फड़ा रही हैं.....
और च्छुटकी के सहमे प्रश्न
अब दम तोड़ रहे हैं.....
उसकी गोल-मटोल शरारती आँखो का कुतूहल
'' माँ मैं कहाँ से आई''
सूई मैं धागा डालता हाथ ठिठक गया
-वहीं चबूतरे पर-|
रात को आँगन मैं बैठ
खाट के पायताने की रस्सिया गिनते-गिनते
च्छुटकी ने फिर अपना प्रश्न दोहराया....
चूल्हे की बची आँच को तसले से ढांपती माँ को
उसे बहलाने का नुस्ख़ा मिला|
''देखो च्छुटकी तुम उहाँ रही थी
हमारी गोद मा आने से पहले''
इशारा जगमगाते तारों पर था
नन्ही ताली की गूँज से सन्नाटा चिटक गया|
गला खंखारती भारी आवाज़ की फटकार से
अनायास ओसारा घुट सा गया और
सिर पर पल्लू संभालती माँ के आँचल
में समाई च्छुटकी की चुहल ने वहीं दम तोड़ दिया...
सयानी दीदी ने चोटी का रीबन बाँधते-बाँधते
तथ्यों से परिचित कराया
माँ के गर्भ की और इशारा कर
च्छुटकी को समझाया.........
साथ ही प्रश्न करने के दुस्साहस
पर प्यार से तमाचा लगाया |
...अब च्छुटकी भी सयानी हो चली है
माँ और दीदी की तरह कभी प्रश्न नहीँ करती है
प्रश्नों के प्रतिबंधित क्षेत्र में
कभी कदम नहीं रखती है..
आज छुटके भैया के जूते के तस्मे बाँधते-बाँधते
उसे तथ्यों से परिचित करा रही है
प्रश्न न करने के सारगर्भित वाक्य दोहरा रही है
तभी
गला खंखारती आवाज़ नें
चारदीवारी को सहमा दिया
फिर से उनकी नें सबको हिला दिया है....
''वो लड़का है'' की गूँज
उसके कानों को पिघला रही है
च्छुटकी असमंजस और दुविधा में
पिता को निहारे चली जा रही है
आँखो में ढेरों प्रश्नों की कतारें
बहने को फड़फड़ा रही हैं.....
और च्छुटकी के सहमे प्रश्न
अब दम तोड़ रहे हैं.....
पूनम माटिया
पूनम माटिया दिल्ली की रहने वाली हैं! उन्होंने बीएड ,एम.बी.ए (ह्यूमन रिसोर्स) ऍम.एस.सी (न्यूट्रीशन), तक शिक्षा प्राप्त की है! उनके अभी तक २ काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनके नाम हैं - १. स्वप्न श्रृंगार और २. अरमान इसके अतिरिक्त उनकी कवितायेँ बोधि प्रकाशन से प्रकाशित संग्रह 'स्त्री होकर सवाल करती है' में भी प्रकाशित हो चुकी है! उनकी कवितायेँ और लेख नियमित रूप से विभिन्न पात्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं!
आईये पढ़ते हैं उनकी कुछ कवितायेँ.......
विलासी नेता -श्रापित आम इंसान .....
टुटा घर
कच्ची टपकती छत
मेहनत कश दिन
जागती रात
भूखा पेट .
टूटते सपने
सियासी दांव-पेंच
पिस्ता आम इंसान
नाम होता विकास का
बे मौत मारा जाता
बेचारा किसान
नित्य नयी योजना
नयी सड़क या
स्कूल का उदघाटन
योजना के नाम पर
करोड़ों का अनुदान
केवल कागज़ी कार्यवाही
पर नेताओं की जेब-भराई
परन्तु यथार्थ के धरातल पर
सिर्फ गरीब के आंसू
और खाली पड़ा मैदान
गरीबी हटाओ का नारा
परन्तु गरीब का मिटता निशान
हर लम्हा एक श्रापित जिंदगी
और सूखी हड्डियों की चरमराहट
मौत के साये में ही
एक नींद बेखौफ सोता इंसान
जज्बात ...........
रोशन हुआ था सारा नज़ारा
एक उनका तस्सवुर में बस आ जाना
जज्बातों का खेल है सारा
खुशबू से चमन का महक जाना
हाथों में थी गेसुओं की बहारें
शर्मो-हया से उनका नज़रें चुराना
हर शय रंगीन ,हर रात 'पूनम'
ख्यालों में एक जिंदगी का गुजर जाना
नजदीकियां ना महसूस कर पाए कभी
बेपनाह मोहब्बत का न दे पाए नजराना
शिद्दत से निभाते रहे दूर रहने का वादा
हासिल हुआ बस अश्कों के समंदर बहाना
रति सक्सेना
डा. रति सक्सेना कवि, आलोचक, अनुवादक और वेद शोधिका है । हिन्दी में चार ( माया महा ठगिनी, अजन्मी कविता की कोख से जन्मी कविता, और सपने देखता समुद्र, एक खिड़की आठ सलाखें ), अंग्रेजी में दो और मलयालम में एक ( अनूदित ) कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । इतालवी भाषा में भी एक कविता संग्रह और अथर्ववेद की प्रेम कविता का अनुवाद प्रकाशित हो चुका है।एक कविता संग्रह अंग्रेजी और हिन्दी , दोनों भाषाओं में प्रकाशित है। मालयालम के प्रसिद्ध कवि अय्यप्पा पणिक्कर की स्मृतियों पर आधारित एक पुस्तक Every thing is past tense हाल मेंही छपी है। अन्य पुस्तक "चींटी के पर" ( यात्रा संस्मरण ) प्रकाशाधीन है। वेदों को आधार बना कर लिखे गए लेख अपने विशेष दृष्टिकोण के कारण पठनीय रहें हैं । देश -विदेश की कई भाषाओं में रति सक्सेना की कविताएँ अनूदित हुईं हैं । ईरान की Golestaneh नामक पत्रिका में रति सक्सेना की कविताओं और जीवन को लेकर एक विशेष अंक निकाला गया है। रति सक्सेना ने कविता और गद्य की 11 पुस्तकों का मलयालम से हिन्दी में अनुवाद भी किया है जिसके लिए उन्हें वर्ष 2000 में केन्द्र साहित्य अकादमी का अवार्ड मिला । मलयालम की कवयित्री बालामणियम्मा को केन्द्र में रख कर एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी ( बालामणियम्मा , काव्य कला और दर्शन ) रति सक्सेना का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है अथर्ववेद को आधार बना कर लिखी पुस्तक " ए सीड आफ माइण्ड - ए फ्रेश अप्रोच टू अथर्ववेदिक स्टडी" जिसके लिए उन्हे " इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र " फेलोशिप मिली । रति सक्सेना को विशिष्ट कवितोंत्सवों "PoesiaPresente" मोन्जा ( इटली )Monza ( Italy) में, Mediterranea Festival द्वारा रोम में और International House of Stavanger, नोर्वे, International Poetry festival , Medillin , कोलम्बिया के प्रसिद्ध कवितोत्सव में कवि एवं फेस्टीवल डायरेक्टर के रूप में भाग लेने के लिए आमन्त्रित किया गया था। हाल में ही तुर्की के शीर होतल में विशेष रूप से आमन्त्रित रहीं। आप www.kritya.in नामक द्विभाषी कविता की पत्रिका की संपादिका है जो पिछले सात वर्षों से चली आ रही है। कृत्या नामक संस्था द्वारा पिछले सात वर्षों से स्तरीय कवितोत्सव मनाए जा रहे हैं, जो अपने स्तरीय प्रदर्शन के कारण वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध हैं।
मनोज कुमार सिंह
सीवान बिहार में जन्म! हिंदी साहित्य में पी.एच-डी, डेल्ही विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में प्रोफ़ेसर! "भक्ति आन्दोलन और हिंदी आलोचना" पुस्तक प्रकाशित! हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित! दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी त्रौमासिक पत्रिका ‘अनभै साँचा’ में कुछ वर्षों से संपादन-सहयोग। मनोज जी 'डायलाग' से सक्रिय रूप से जुड़े हैं! इनकी कवितायेँ सामाजिक कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करती हैं!
आईये पढ़ते हैं मनोज जी की कुछ कवितायेँ:
जनता का आदमी
वह सोचता था
और
जनता को ढूढ़ता था।
वह लिखता था
और
जनता को ढूढ़ता था।
वह जनता को
............... समझता था।
जब उसे पता चला
जनता उसे ............... समझती थी।
वह विद्रोही हो गया।
अब वह
जनता के
जिस हिस्से से
टकराता था
उसे ही खाता था।
देखते ही देखते
जनता का आदमी
आदमखोर हो गया।
लोगों ने पंचायत बुलाई-
जनता के आदमी से
निपटने के लिए मशालें जलाईं
और
रात के अंध्ेरे में
जनता का आदमी
जनता के हाथों मारा गया।
.........................
‘‘पद्मिनी नायिकाएँ’’
मेधवी
ढूढ़ रहे हैं
पद्मिनी नायिकाएँ
‘कुंदनवर्णी’!
रख रहे हैं
ख्याल
कुल-गोत्र का
हो रहे हैं-
विश्व-मानव!
उम्र के ठहराव पर
प्राप्त कर रहे हैं
अज्ञात यौवनाएँ।
‘‘ज्ञान में
समतुल्य
बेजुबान सहचर चाहिए’’
का दे रहे हैं-
विज्ञापन।
रच रहे हैं
विधन
ज्ञान का,
वैदिक रीति से प्राप्त कर रहे हैं
‘कन्या’
दान का!
पूरे इन्तजाम पर ला रहे हैं
विवाहिताएँ
उछलती-कूदती पसंद
के आधर पर लाई गईं
हो गईं-
‘कुलवंती’ ‘ध्ीरा’।
मर खप रही हैं
पुत्रा हेतु।
विज्ञान के सबसे क्रूर यंत्रा से गुजर रही हैं-
पद्मिनी नायिकाएँ।
पुत्रा की शिनाख़्त पर
बढ़ गयी है सेवा।
पति कूट रहे हैं
लवंग सुपारी का पान
ज़माने-भर का अपमान
चुकाने का बन गयीं हैं स्थान,
पद्मिनी नायिकाएँ।
रात-रात
दिन-दिन
जग रही हैं
कर रही हैं- सेवा
सापफ कर रही हैं
मल-मूत्रा
खा रही है मेवा
पद्मिनी नायिकाएँ।
और
इस तरह
जन रहीं हैं
भावी ‘मेध’
पद्मिनी नायिकाएँ।
...............
मिथिलेश श्रीवास्तव
मिथिलेश श्रीवास्तव बिहार के गोपालगंज जिले के हरपुरटेंगराही गाँव में जन्मे| भौतिकी स्नातक तक की पढाई बिहार के साइंस कॉलेज पटना में हुई| नौकरी की तलाश में दिल्ली आना हुआ तब से दिल्ली में ही प्रवास| स्कूल के दिनों से ही कविता की ओर प्रवृत हो गए| कविता लिखने के साथ साथ समकालीन रंगमंच और चित्रकला और समसामयिक सामाजिक विषयों पर निरंतर लेखन |
पहला कविता संग्रह 'किसी उम्मीद की तरह' पंचकुला स्थित आधार प्रकाशन से छपा| दिल्ली राज्य की हिंदी अकादेमी द्वारा युवा कविता सम्मान से पुरस्कृत| दिल्ली विश्वविधालय के सत्यवती कॉलेज की साहित्य सभा उत्कर्ष के 'कविता मित्र सम्मान, २०११' से सम्मानित| 'सार्क लेखक सम्मान, २०१२' से सम्मानित | लिखावट नाम की संस्था के माध्यम से लोगों के बीच कविता के प्रचार- प्रसार का 'घर घर कविता', 'कैम्पस में कविता',
प्रसंग' सरीखे कार्यक्रमों का आयोजन| दिल्ली की अकादेमी आफ़ फाइन आर्ट्स एंड लिटीरेचर के कविता के 'डायलग' कर्यक्रम का संयोजक| सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में २००३ में हुए हिंदी भाषा 'कविता-सम्मलेन में कविता-पाठ| काठमांडू में बी पी कोइराला फाउनदेसन और नेपाल में भारतीय दूतावास की ओर से आयोजित भारत-नेपाल साहित्यिक आयोजन में काठमांडू में कविता-पाठ| हिंदुस्तान (हिंदी) दैनिक अख़बार में कला समीक्षक और जनसत्ता दैनिक अख़बार में रंगमंच समीक्षक के रूप में कार्य|
मिथिलेश जी की कुछ कवितायेँ जो वे डायलग में प्रस्तुत करने वाले हैं :
पुतले पर उतरता हमारा गुस्सा
फुटती नहीं हैं अब तानाशाह की आखें
जूतें फेंक कर आततायी को मारने की कोशिश
उसे और बेशर्म बना देती है
जिसे वह उसे मार देने की साजिश बता कर
छुपा लेता है अपना आतातायीपन
जूता फेंकनेवाला खो देता है अपना एक जूता
दूसरा जूता किसी काम का नहीं रह जाता
लोगों को कहो पुतले को फासी पर लटकाने से बचें
लोगों को कहो पुतले को जलाने से बचें
लोगों को कहो अपने अमूल्य गुस्से को बचा कर सहेजें
यह दुनिया तमाम तानाशाहों माफियायों आततायिओं एह्सानफरामोसों
से भरी हुई है
पुतले जलाकर रावण को मार नहीं सके हैं हम
वह यहीं हमारे बीच बैठा हुआ हमारे गुस्से को उकसाता रहता है
अपने पुतले बनवाकर हमारे हाथों में दे देता है
हम उसके पुतले में बारूद भरते हैं
बारूद से भरे अपने पुतले को आग में भस्म होते वह देखता है
हमारे ही बीच बैठे हुए अपना मनोरंजन करता है
हम उसके पुतले जलातें हैं
उसके ऊपर जूतें फेकतें हैं
पुतले की आखें फोड़तें हैं
और वह वहीं खड़े खड़े
बड़े प्यार से हमें देखता रहता है
हमारे गुस्से की तारीफ करता है
पुतले जलाने के लिए उतावले लोगों के गुस्से में
लोकतंत्र का उज्जवल भविष्य देखता है
उसके बाद अपने गुस्से से महरूम हुए
हम बेगाने होने लागतें हैं|
ईश्वर
मैंने जहाँ पिछली दफा एक प्रार्थना लिखी थी
ईश्वर गाछ का वह तना कहाँ है
जहाँ मन्नतों के धागे मैंने बांधी थी
आँखें मूदें हाथ जोरे सिर झुकाए मैंने तुमसे क्या माँगा था
मुझे तो याद नहीं है तुम्हे याद हो तो देख लेना
मन्नतें पूरी होने लगती हैं तो
तुममें मेरी श्रधा अपार हो जाती है
इस गरीब देश मै तुम्हारी बहुत जरूरत है
यह खापों पंचायतों कबीलों की दुनिया है
एक बाप अपनी बेटी की हत्या कर देता है
वह जब अपनी इच्छाओं के अनुरूप मन्नतें मांगती है
ईश्वर वह दीवार कहाँ है
मैंने जहाँ पिछली दफा एक प्रार्थना लिखी थी
देखना याद आये तो बताना
मेरी बेटी कहती है यहाँ
इतनी सारी दीवारें क्यों हैं
वह न कोई मन्नत मांगती है
न कोई प्रार्थना करती है
उसकी भी रक्षा करना ईश्वर |
सुधांशु फिरदौस
2 जनवरी 1985 को मुज़फ्फरपुर में जन्म,बी० एच० यू० से गणित स्नातक और जामिया से गणित और कंप्यूटर साइंस में परास्नातक, फ़िलहाल एल०पी०यू० के डिस्टेंस एडूकेसन डिपार्टमेंट में गणित पढ़ाते हैं और जालंधर में रहते हैं! सुधांशु की कवितायेँ पढने वाले लोग कहते हैं कि उनकी कवितायेँ गागर में सागर, बेहद मारक और सटीक कवितायेँ हैं! सुधांशु जानते हैं कि कम शब्दों में अपनी बात को सार्थक तरीके से कहना क्या होता है!
आईये पढ़ते हैं सुधांशु जी की कुछ कवितायेँ :
दोस्ती
औंधे मुँह लेटे आकाश ने
सीधे मुँह लेटे आदमी से कहा:
'कितने अकेले हो तुम'
.....................
एक फुसफुसाहट हुई
'तुम भी तो!'
फिर दोनों हँसने लगे।
डर
सब उसपे छोड़ दो
मुझे डर है
आखिर उसको
किसपे छोड़ दूँ
इलाज़
दुःख के आकाश में
प्यार का चीरा लगा के
उम्मीद ने पूछा:
"अब,कैसा लग रहा है "
कोना
मेरे भीतर
एक गोल कमरा है
जिसमें रहती है एक लड़की
जो रोने के लिए
कोने ढूंढ़ती
लागातार घुम रही है
ज़िद
ज़िद उसे भी है
ज़िद मुझे भी है
हमारा प्यार दोनों हाथों में
ज़िद की बाल्टियां उठाये
सीढियां चढ़ रहा है
फ़रिश्ता
वह जानता था
वह कभी नहीं आएगा
फिर भी
उसने उसके आने की
अफवाह फैलाई
ताकि
उम्मीद जिन्दा रहे !
प्रेम गली
कबीर की प्रेम गली
बहुत तंग है
घुटन होती है
घुटन होती है
जरा फासले करो
मेरे पिछे
हुजूम आ रहा है
बाज़ार
मैं उड़ रहा हूँ
आसमाँ में
आसमाँ में
तू निगल रहा है
जमीं पे
मेरी परछाई!
बगुला भगत(श्रृंखला.....)
(१)
आख़िरी मछली को निगलके
बगुले ने तालाब से पूछा:
" तुम आजकल इतने उदास क्यों रहते हो?"
टैलेंट
दुम हिलाने की प्रतियोगिता हो रही थी
आदमी को,पहला पुरस्कार मिला!
डॉ. सुनीता कविता
डॉ. सुनीता कविता ने MA Bed NET Phd (हिंदी) : ( स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता: स्वरुप एवं प्रतिमान) तक बनारस हिन्दू यूनिवेर्सिटी, बनारस से शिक्षा प्राप्त की है! वर्तमान में वे अध्ययन के क्षेत्र से जुडी हैं! सुनीता जी ने बहुत कम वय में ही लिखना शुरू कर दिया था! वे रेडियो पर भी काफी समय से कविता पढ़ती रही हैं और बहुत से पत्रिकाओं से सक्रिय रूप से जुडी हुई हैं! सभी प्रमुख पात्र-पत्रिकाओं में उनकी कवितायेँ और लेखा प्रकाशित होते रहे हैं! वे ब्लोगिंग से भी जुडी हैं!
आईये पढ़ते हैं उनकी कुछ कवितायेँ.......
बंजर जमीन में पानी
वह दिखती है मुझ जैसी
तेज सूरज सी चाँद सी शर्मीली
वदन गठीले,नैन कटीले
पैरों में घुंघरू सजते/खूब फबते
ताल पर ताल तबले के थाप पर थिरकते
रूप मोहरे से हम सब जैसी लगती/लगता है
लेकिन
वह लिंगभेद से कोयल जैसी है
कुहुकती !
ताल ठोकर अखाड़े में भिड़ती है
लता की लचीली कमर
गुलाब से खिलती-मिलती है
खारे पानी से खरीली मेघ घन सी सजीली
उन्नत ललाट मर्दाना लगती
एक संशय सवाल खड़ा करता है
वह लगती है या लगता है कि बात खटकती है
अस्तित्व तलाशती पवनचक्की सी घुमरती
अनंत अस्मा से तारों के टिमटिम में खुद को हेरती
शून्य में देखती शून्य हो जाती
इठलाती-इतराती मासूम बुलबुल/बन बच्ची
कभी खिलखिला कर हँसती-हंसिनी
छमक नाचती मोरनी बन हिरनी
अट्टहास करती,गर्जन शेर सा
मान-मर्दन की तर्जन पर
विचारने को कुछ नहीं खाली पड़ी भुड्की के दाने
मंथन के अभिन्न तारेमंडल
इंद्रधनुषी ख़्वाब पिरोते
आँखों में बसे सीपी के धवल रूप
नींद में हौले से बदलते पहलू जैसे
चनक उठे कांच के मानिंद
जननी के कोंख में कालिख लगी क्यों नहीं ?
आडम्बरी व्यवस्था की डिबरी सौपें हमें ही क्यों
रौशनी की चोरी का इल्जाम कैसा
अनवरत अनुसरण करती आमरण तक
अनुगूँज भावना अनुमोदित करते
उठकर चल जीने की जिजीविषा
बेहाया सी सुखकर भी पनप जाते हैं
विरह के अग्नि में झुलस रहे हैं
किताबों के जिल्द पर चिपके चित्र
देखते हैं जैसे बादलों की एक-एक रेखाएं
धरती की लहलहाती हरियाली
और
ढूढते हैं बंजर जमीन में पानी.
अलकों-पलकों में !
पनाह मांगती हूँ
माँ तेरी गोंद में
तेरी कोंख में
तेरी जिंदगी में
हवाओं से निकलती ढलते साँसों में
आँखों के कोरों में ही नहीं अलकों-पलकों के छाँव में
गगन में बिखरे तारों के समूह में
जैसे खिलते हैं फुल खुले आसमान में.
सुनना चाहती हूँ मैं लोरी तेरे लबों से
कंपकंपाते जिश्म से,
तेरे सूखते होंठों से
सुकून की तलाश में
लिपटना चाहती हूँ धडकनों से
मान और अभिमान के साथ
जो हांथी की चिंघाड सी न हों
जो हांथी की चिंघाड सी न हों
चिड़ियों की चहचहाट की तरह
जैसे बूंदें खामोश गीत गाती हैं
तेरी बाहों में झुलना चाहती हूँ
जिंदगी से मिलना चाहती हूँ
तुझमें समा के तुझसा बनना है
चाँद,तारे किरण और करुना
सा जगमगाना चाहती हूँ
कांच के जैसे प्रतिबिंबित होना है
कटहल की तरह काँटे नहीं गुलाब सी खुशबु
चन्दन बन बिखेरना है
हारिल लकड़ी के जैसे नहीं
सेखुआ जैसे मजबूत और जीवट बनना है
मैं घनघोर अँधेरे से देख रही हूँ
तू सहमी है
मेरे आने के खबर से हडबडाई हुई है
घबराई हुई धरती सी घूम रही है
हलचल मच रही है हृदय के कमरों में
जहाँ बतकही छिड़ी है वंशज की
उससे चुप्पी की चिप्पी लग गई है
छन्न से खिन्न कुछ खंड-खंड हुआ है
मुझे आभास है चेहरे पर पड़ती झाई
द्वंद के शहतीरों को झटक दो
उथल-पुथल के दीवार को पटक दो
मुझे नजरों के चिन्हों में छुपा लो
तेरी हर कुरबत को संग मिल झेलेंगे
उस तरह नहीं जैसे वादे,कसमें,वफ़ा और वक्त
उस तरह जैसे चाँद-चकोरे,सूरज-प्रकाश
यादों में महसूस करके सिसकते हैं
इक-दूसरे से मिलने को आतुर भटकते हैं.
तो आप सभी इस कार्यक्रम में सादर आमंत्रित है!
अंजू जी की आँखे जहां आदमी के पशु से भी खतरनाक स्वरुप का बखान करती है वही दुष्यंत की अंगूठी पहिये लगी जिन्दगी के सच से रूबरू कराती है..हद तो इतनी है छोटे-छोटे बालक भी पहियों से बाढ़ दिए गए हैं....बच्चे का टिफिन......इसी और इंगित करता है.....और प्राण-प्रिय का व्यवहार सारे आदमियों के व्यव्हार को प्रकट करता है.....जीवन का आनंद रस.....सामाजिक जटिलताओं के आगे सूखने की और अग्रसर दिखाई पड़ता है.....सबसे बड़ी बात फिर भी स्त्री उस आनंद रस को बचाने को तत्पर दिखती है.....बहुत ही सारगर्भित कविता है .......सुंदरतम श्रेणी की कविता हैं
ReplyDeleteनोरिन शर्मा की प्रतिबंधित क्षेत्र प्रश्नों के जन्म पर ही म्रत्यु की और इशारा करती है.....बच्चों के प्रश्न अब चाँद-तारे-आस्मां की और की बजाय .....अपने बारे में जिज्ञासा को दिखाते हैं......जहां तक मुझको लगता है बच्चे अब बड़े हो रहे हैं .....उनके सवाल वाजीब हैं..
ReplyDeleteऐसे सवालों से आदमी कन्नी काट जाता है ....और औरत को इनसे दो-चार होना पड़ता है.....
बहुत ही सटीक प्रश्न को स्पस्ट किया है नोरिन शर्मा ने अपनी इस कविता से ....
विलासी नेता....श्रापित आम इंसान....उस आदमी की बदतर हालातों को स्पष्ट करता है जिसके बारे में सदियों से सत्ता चिंतित है........सत्ता की चिंता जितनी तर्क-संगत बनती जाती है आम आदमी की स्थिति भी और भी भयावह रूप धरती जाती है.......पूनम माटिया जी उस आदमी के साथ खड़ी दिखाई देती हैं जो समाज की रीड है.......पर दुर्भाग्य है यही रीड तोड़ी जाती है ......
ReplyDeleteजनता का आदमी....कई बार सुनी है पर पढ़ी आज है.....बहुत ही कमाल का व्यग्य है......जहां तक में समझ पाया हूँ ये महान-बुद्धिजीवियों के तौर-तरीको पे कटाक्ष है------एक बात मनोज जी से कहना चाहता हूँ जो आपने कविता के बीच में डोट डालें हैं इनको भर दो ......कविता और भी सुंदर हो जायेगी.
ReplyDeleteपद्मनी का इस सभ्य समाज में कितना बड़ा स्थान है यही मनोज जी की इस कविता में दिखाई देता है....विज्ञापन समाचार-पत्रों के इसी और इशारा करते हैं....सुशील-सर्व-गुण संपन्न चाहिए.....(मतलब जो जन्म दे सके पुत्रों को)......विज्ञान का भयानक प्रयोग स्त्री पे ही आजमाया जाता हैं
ReplyDeleteसुधांशू की कवितायें क्या हैं....कमाल हैं ! टेलेंट ने तो रही सही कसर भी पूरी कर दी.
ReplyDeleteआस्मां,जिद,दोस्ती,कौना,बगुला भगत ....एक से एक !
पुतले पे उतरता गुस्सा----हमारे समय की सत्ता क्रूरता की रक्षा करता है......इसी लिए शासक ने ये विरोध का लोकतान्त्रिक झुनझुना जनता को थमा कर अपने को सुरक्षित कर लिया है.......गुस्से को खो कर आदमी खाली हो जाता है और फिर चलता है सत्ता का क्रूरतम खेल.........मिथलेश जी पुरे जन्तर-मन्त्र की उपयोगिता को ही एक षड्यंत्र के रूप में प्रकट किया है........जन्तर-मन्त्र या बोट-कलब ना होते तो असली क्रांति इंतज़ार ना करती
ReplyDeleteअंजू इस विस्तृत परिचय के लिए आपका आभार .......:)
ReplyDeleteसुदेश जी नमस्कार ......//विलासी नेता....श्रापित आम इंसान// रचना के सन्दर्भ में आपके विचार पढ़ कर अच्छा लगा ......सत्ता और आम आदमी के बीच के छत्तीस के आंकड़े को शब्दों में ढालना चाहा है मैंने .......घोटाले .गबन और सिर्फ सरकारी खातों का तल्लीनता से रख -रखाव ही आज सरकार के कार्य नज़र आते हैं .जबकि दूसरी और आम आदमी खासकर किसान की ख़ुदकुशी ही कल अखबारों की सुर्खिया बनती हैं .....दर्द तो उठता है जब रीढ़ की हड्डी पर प्रहार होता है ..........शुक्रिया आपने इस रचना के बारे में सोचा और प्रयास को सराहा ......