लिखावट
(कविता और विचार का मंच)
सादर आमंत्रित करता है
'कविता पाठ एक' कार्यक्रम में
दिनांक : १८ अप्रैल, 2012
समय: ५.३० बजे सायं से
स्थान : सेमिनार रुम, द्वितीय तल, त्रिवेणी कला संगम, मंडी हाउस, नई दिल्ली -110001
अध्यक्षता : वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी
आमंत्रित कवि:
मनोज कुमार सिंह, बली सिंह, जसवीर त्यागी, संजीव कौशल, महेंद्र सिंह बेनीवाल, अशोक कुमार
पाण्डेय और प्रताप राव कदम
संचालन: मिथिलेश श्रीवास्तव
रिपोर्टिंग/फोटोग्राफी: अंजू शर्मा
धन्यवाद्- ज्ञापन: राजीव वर्मा
सम्पर्क :लिखावट: अनीता श्रीवास्तव, फोन: ०९८६८१७४८५८
लिखावट क्या है!!!!!
- लिखावट आखिर है क्या? लिखावट दरअसल लेखकों का एक समूह है जो लेखकों के रचनात्मक सहयोग से चलता है| लेखकों के समूह को फिल्म और रंगमंच समीक्षक अजित राय मित्र मंडली कहकर संबोधित करते हैं| यह मित्र मंडली पिछले २३ सालों से कविता और विचार को लेकर लिखावट के माध्यम से सक्रिय है| कविता और कविता पाठ को हमेंसा महत्वा दिया है| लिखावट ने पहला कार्यक्रम ६ जनवरी, १९८९ को घर घर कविता के रूप में आयोजित किया था जिसमें हमारे समय के सबसे बड़े और महान कवि रघुवीर सहाय का एकल कविता पाठ हुआ| छोटी सी जगह थी और तमाम लोग थे!
- इस बात को लेकर तमाम लोग उत्साहित हैं कि लिखावट फिर से अपनी पुरानी गति को पा लिया है| कुछ वर्षों कि निष्क्रियता या कहें कि कम सक्रियता के अपने मंद गति से बाहर आ गया है| लिखावट के कुछ कार्यक्रम मसलन 'घर घर कविता' और 'कैम्पस में कविता' काफी लोकप्रिय और चर्चित रहे हैं| ऐसे कार्यक्रम ईधर लगातार हो रहे है!
- नई दिल्ली, १५ अप्रैल, २०१२: कविता और विचार का मंच लिखावट की ओर से चार कविता पाठों की एक श्रृंखला इसी अप्रैल महीने से शुरू की जा रही है| पहला कविता पाठ १८ अप्रैल २०१२ दिन बुधवार को साढ़े पांच बजे शाम से मंडी हाउस इलाके के त्रिवेणी कला संगम के द्वितीय तल वाले सभाकक्ष में संपन्न होगा| बाकि तीन कविता पाठ मई, जून, जुलाई महीने में होंगे| इस कविता पाठ के आमंत्रित कवि हैं मनोज कुमार सिंह, बली सिंह, जसवीर त्यागी, संजीव कौशल, महेंद्र सिंह बेनीवाल, अशोक कुमार पाण्डेय, और प्रताप राव कदम| प्रताप राव कदम के साहित्यिक अवदान पर मदन कश्यप समीक्षात्मक टिपण्णी करेंगे| लीलाधर मंडलोई युवा कवि अशोक कुमार पाण्डेय की कविता पर बोलेंगे | मनोज कुमार सिंह, महेंद्र सिंह बेनीवाल, संजीव कौशल, जसवीर त्यागी और बली सिंह के रचना संसार का परिचय मिथिलेश श्रीवास्तव देंगे| अध्यक्षता मशहूर आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी करेंगे और संचालन करेंगे मिथिलेश श्रीवास्तव|
"कविता-पाठ - एक" में भाग लेने वाले और लिखावट से जुड़े कुछ कवियों का संक्षिप्त परिचय
अशोक कुमार पाण्डेय
युवा कवि, कहानीकार और आलोचक अशोक कुमार पाण्डेय ग्वालियर में रहते हैं। जन्म- २४ जनवरी, १९७५ को तत्कालीन आजमगढ़ ज़िले के सुग्गी चौरी नामक गाँव में। शिक्षा- आरंभिक शिक्षा देवरिया और उच्च शिक्षा गोरखपुर में हुई। अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रहे! सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में सक्रिय अशोक कविताओं के साथ-साथ आर्थिक विषयों पर आलेख लिखते हैं,अनुवाद करते हैं,समीक्षायें करते हैं और साथ ही इधर कुछ कहानियां भी लिखी हैं। हिन्दी की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित अशोक अपनी समझौताहीन वैचारिक प्रतिबद्धता के लिये जाने जाते हैं। वे अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति न केवल वैचारिक अपितु जमीनी स्तर पर भी सक्रिय रहते हैं!
चर्चित कविता संग्रह "लगभग अनामंत्रित" शिल्पायन से प्रकाशित हुआ है ! इसके अतिरिक्त आर्थिक विषयों पर लिखे आलेखों का संग्रह 'शोषण के अभयारण्य - भूमंडलीकरण' तथा संवाद प्रकाशन से 'मार्क्स : जीवन तथा विचार' शामिल हैं। वह चे ग्वेरा की एक किताब का अनुवाद भी कर रहे हैं। अनूदित पुस्तक 'प्रेम' भी संवाद से प्रकाशित, दो और अनुवाद शीघ्र प्रकाश्य।
सम्प्रिति : सांख्यिकी मंत्रालय में कार्यरत! इन दिनों वे साहित्यिक पत्रिका "कल के लिए" के कार्यकारी संपादक भी हैं!
आईये पढ़ते हैं अशोक की कुछ कवितायेँ.............
माँ की डिग्रियाँ
घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीजों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
माँ की डिग्रियों का एक पुलिन्दा
बचपन में अक्सर देखा है माँ को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिंदा
कभी क्रोध कभी खीझ
और कभी हताश रूदन के बीच
टुकड़े-टुकड़े सुनी बातों को जोड़कर
धीरे-धीरे बुनी मैंने साड़ी की कहानी
कि कैसे ठीक उस रस्म के पहले
घण्टों चीखते रहे थे बाबा
और नाना बस खड़े रह गये थे हाथ जोड़कर
माँ ने पहली बार देखे थे उन आँखों में आँसू
और फिर रोती रही थीं बरसों
अक्सर कहतीं यही पहनाकर भेजना चिता पर
और पिता बस मुस्कुराकर रह जाते...
डिग्रियों के बारे में तो चुप ही रहीं माँ
बस एक उकताई सी मुस्कुराहट पसर जाती आँखों में
जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते
’उस जमाने की एम ए. हैं साहब
चाहतीं तो कालेज में होतीं किसी
हमने तो रोका नहीं कभी
पर घर और बच्चें रहे इनकी पहली प्राथमिकता
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ’
बहुत बाद में बताया नानी ने
कि सिर्फ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी कीमत
अनेक छोटी-बडी लड़ाईयाँ दफ्न थीं उन पुराने कागजों में...
आठवीं के बाद नहीं था आसपास कोई स्कूल
और पूरा गाँव एकजुट था शहर भेजे जाने के खिलाफ
उनके दादा ने तो त्याग ही दिया था अन्न-जल
पर निरक्षर नानी अड़ गयी थीं चट्टान सी
और झुकना पड़ा था नाना को पहली बार
अन्न-जल तो खैर कितने दिन त्यागते
पर गाँव की उस पहली ग्रेजूएट का
फिर मुँह तक नहीं देखा दादा
डिग्रियों से याद आया
ननिहाल की बैठक में टँगा
वह धूल-धूसरित चित्र
जिसमें काली टोपी लगाये
लम्बे से चोगे में
बेटन सी थामे हुए डिग्री
माँ जैसी शक्लोसूरत वाली एक लड़की मुस्कुराती रहती है
माँ के चेहरे पर तो कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान
कॉलेज के चहचहाते लेक्चर थियेटर में
तमाम हमउम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की?
क्या सोचती होगी रात के तीसरे पहर में
इतिहास के पन्ने पलटते हुए?
क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक
कालेज की चहारदीवारी पर बैठा कोई करता होगा इंतजार?
(जैसे मैं करता था तुम्हारा)
क्या उसकी किताबों में भी कोई रख जाता होगा कोई
सपनों का महकता गुलाब?
परिणामों के ठीक पहले वाली रात क्या
हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल?
और अगली रात पंख लगाये डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त...
जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह एहसास होगा ही उसे
अपनी उम्र के साथ गहराती जा रही पिता की चिन्ताओं का
तो क्या परीक्षा के बाद किताबों के साथ
ख़ुद ही समेटने लगी होगी स्वप्न?
या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है
मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक कि
आँखों में जगह ही न बचे किसी अन्य दृश्य के लिए?
पूछ तो नहीं सका कभी
पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद
कह सकता हूँ पूरे विश्वास से
कि उस चटख पीली लेकिन उदास साडी के नीचे
दब जाने के लिये नहीं थीं
उस लड़की की डिग्रियाँ !!!
तुम्हारी दुनिया में इस तरह
सिंदूर बनकर
तुम्हारे सिर पर
सवार नहीं होना चाहता हूँ
न डंस लेना चाहता हूँ
तुम्हारे क़दमों की उड़ान को
चूडियों की जंजीर में
नहीं जकड़ना चाहता
तुम्हारी कलाइयों की लय
न मंगल सूत्र बन
झुका देना चाहता हूँ
तुम्हारी उन्नत ग्रीवा
जिसका एक सिर बंधा ही रहे
घर के खूंटे से
किसी वचन की बर्फ में
नहीं सोखना चाहता
तुम्हारे देह का ताप
बस आँखों से बीजना चाहता हूँ विश्वाश
औए दाखिल हो जाना चाहता हूँ
ख़ामोशी से तुम्हारी दुनिया में
जैसे आँखों में दाखिल हो जाती है नींद
जैसे नींद में दाखिल हो जाते हैं स्वप्न
जैसे स्वप्न में दाखिल हो जाती है बेचैनी
जैसे बेचैनी में दाखिल हो जाती हैं उम्मीदें
और फिर
झिलमिलाती रहती हैं उम्र भर |
तुम्हारे सिर पर
सवार नहीं होना चाहता हूँ
न डंस लेना चाहता हूँ
तुम्हारे क़दमों की उड़ान को
चूडियों की जंजीर में
नहीं जकड़ना चाहता
तुम्हारी कलाइयों की लय
न मंगल सूत्र बन
झुका देना चाहता हूँ
तुम्हारी उन्नत ग्रीवा
जिसका एक सिर बंधा ही रहे
घर के खूंटे से
किसी वचन की बर्फ में
नहीं सोखना चाहता
तुम्हारे देह का ताप
बस आँखों से बीजना चाहता हूँ विश्वाश
औए दाखिल हो जाना चाहता हूँ
ख़ामोशी से तुम्हारी दुनिया में
जैसे आँखों में दाखिल हो जाती है नींद
जैसे नींद में दाखिल हो जाते हैं स्वप्न
जैसे स्वप्न में दाखिल हो जाती है बेचैनी
जैसे बेचैनी में दाखिल हो जाती हैं उम्मीदें
और फिर
झिलमिलाती रहती हैं उम्र भर |
अंजू शर्मा
अंजू शर्मा दिल्ली विश्वविध्यालय के सत्यवती कॉलेज से वाणिज्य स्नातक हैं! ‘स्त्री मुक्ति’ से जुड़े काव्य लेखन में एक चर्चित नाम हैं! विभिन्न काव्य-गोष्ठियों में सक्रिय भागेदारी! अनेक पत्रिकाओं व वेब पत्रिकाओं में कविताएं व लेख प्रकाशित! बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित काव्य संकलन "स्त्री होकर सवाल करती है' में कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं! संप्रति: ‘अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर’ के कार्यक्रम 'डायलॉग' और संस्था 'लिखावट' के आयोजन 'कैंपस में कविता' और "कविता-पाठ" से बतौर बतौर कवि और रिपोर्टर भी जुडी हुई हैं! कविताओं के ब्लॉग 'उड़ान अंतर्मन की" का संपादन करती हैं और कई पत्रिकाओं में साहित्यिक कॉलम भी लिख रही हैं!
पढ़ते हैं उनकी कुछ कवितायेँ ............
"महानगर में आज"
अक्सर, जब बिटिया होती है साथ
और करती है मनुहार एक कहानी की,
रचना चाहती हूँ सपनीले इन्द्रधनुष,
चुनना चाहती हूँ कुछ मखमली किस्से,
हमारे मध्य पसरी रहती हैं कई कहानियां,
किन्तु इनमें परियों और राजकुमारियों के चेहरे
इतने कातर पहले कभी नहीं थे,
औचक खड़ी सुकुमारियाँ,
भूल जाया करती हैं टूथपेस्ट के विज्ञापन,
ऊँची कंक्रीट की बिल्डिंगें,
बदल जाती आदिम गुफाओं में
सींगों वाले राक्षसों के मुक्त अट्टहास
तब उभर आते हैं
"महानगर में आज" की ख़बरों में,
गुमशुदगी से भरे पन्ने
गायब हैं रोजनामचों से,
और नीली बत्तियों की रखवाली ही
प्रथम दृष्टतया है,
समारोह में माल्यार्पण से
गदगद तमगे खुश है
कि आंकड़े बताते हैं अपराध घट रहे हैं,
विदेशी सुरा, सुन्दरी और गर्म गोश्त
मिलकर रचते हैं नया इतिहास,
इतिहास जो बताता है
कि गर्वोन्मत पदोन्नतियां
अक्सर भारी पड़ती हैं मूक तबादलों पर............................ ...
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी
हाँ मेरा हृदय
आकर्षित है
उस दृष्टि के लिए,
जो उत्पन्न करती है
मेरे हृदय में
एक लुभावना कम्पन,
किन्तु
शापित नहीं होना है मुझे,
क्योंकि मैं नकारती हूँ
उस विवशता को
जहाँ सदियाँ गुजर जाती हैं
एक राम की प्रतीक्षा में,
इस बार मुझे सीखना है
फर्क
इन्द्र और गौतम की दृष्टि का
भिज्ञ हूँ मैं श्राप के दंश से
पाषाण से स्त्री बनने
के पीड़ा से,
लहू-लुहान हुए अस्तित्व को
सतर करने की प्रक्रिया से,
किसी दृष्टि में
सदानीरा सा बहता रस प्लावन
अदृश्य अनकहा नहीं है
मेरे लिए,
और मन जो भाग रहा है
बेलगाम घोड़े सा,
निहारता है उस
मृग मरीचिका को,
उसे थामती हूँ मैं
पर ये किसी हठी बालक सा
मांगता है चंद्रखिलोना,
क्यों नहीं मानता
कि किसी श्राप की कामना
नहीं है मुझे
संवेदनाओ के पैराहन के
कोने को
गांठ लगा ली है संस्कारों की
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी!बलि सिंह
पढ़िए बलि सिंह जी की कुछ कवितायेँ जो वे "कविता-पाठ-एक" में पढने वाले हैं.......
एक बैल की कथा
किसी खड़े हुए बैल को देखकर
निश्चित रूप से यह कहना मुश्किल है कि
यह क्या कर रहा है?
उसका कोई लक्ष्य पता ही नहीं चलताµ
ठीक पशु जैसा मनुष्य।
हो सकता है वह
प्रेमचंद का इंतजार कर रहा हो
उनकी कहानी से बाहर निकल आया हो।
ये भी हो सकता है कि
वह उस खेत के बारे में सोच रहा हो
जहां अब उसकी जरूरत नहीं रह गयी है
यंत्रों से सारा काम जो चल जाता है!
वह कहीं लुप्त होती
अपनी प्रजाति के बारे में तो चिंतित नहीं है?
अकेले होने का बोध तो नहीं सता रहा है उसे?
कहीं वह शिव का नंदी तो नहीं,
कैलाश पर्वत से निकल आया हो
और अब कोई रास्ता ही न सूझ रहा हो।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि
कर्ज के जुए से डर के
यहां भाग आया हो
और कुछ कमाना चाहता हो
ताकि बचा सके
अपने साथी को आत्महत्या से।
मेरी छाया और मैं
मेरी छाया
जैसे हमेशा मेरे ताक में रहती हैः
कभी घूरती है,
कभी जानबूझकर अनदेखा करती है
कि खेलने-कूदने दो कुछ दिन।
जैसे हिसाब-किताब रखती होः
मैं क्या कर रहा हूँ,
क्या सोच रहा हूँ,
कहाँ रहता हूँ,
कहाँ जा रहा हूँ,
कितनी उम्र हो गयी है मेरी
और कितनी अभी बाकी है?
एक अजीब-सी खींचतान मची रहती है
हम दोनों के बीचः
कभी वो मुझसे बड़ी दिखती है
और कभी मैं उससे,
कभी वो मुझे अपने भीतर समाने की कोशिश करती है
और कभी मैं उसे,
कभी वो मुझसे छिपती है
और कभी मैं उससे।
देखते हैं
ये लुकाछिपी
आखिर क्या रंग लाएगी एक दिन।
मनोज कुमार सिंह
सीवान बिहार में जन्म! हिंदी साहित्य में पी.एच-डी, डेल्ही विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में प्रोफ़ेसर! "भक्ति आन्दोलन और हिंदी आलोचना" पुस्तक प्रकाशित! हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित! दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी त्रौमासिक पत्रिका ‘अनभै साँचा’ में कुछ वर्षों से संपादन-सहयोग। मनोज जी 'डायलाग' और कविता-पाठ से सक्रिय रूप से जुड़े हैं! इनकी कवितायेँ सामाजिक कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करती हैं!
आईये पढ़ते हैं मनोज जी की कुछ कवितायेँ:
जनता का आदमी
वह सोचता था
और
जनता को ढूढ़ता था।
वह लिखता था
और
जनता को ढूढ़ता था।
वह जनता को
............... समझता था।
जब उसे पता चला
जनता उसे ............... समझती थी।
वह विद्रोही हो गया।
अब वह
जनता के
जिस हिस्से से
टकराता था
उसे ही खाता था।
देखते ही देखते
जनता का आदमी
आदमखोर हो गया।
लोगों ने पंचायत बुलाई-
जनता के आदमी से
निपटने के लिए मशालें जलाईं
और
रात के अंध्ेरे में
जनता का आदमी
जनता के हाथों मारा गया।
‘‘पद्मिनी नायिकाएँ’’
मेधवी
ढूढ़ रहे हैं
पद्मिनी नायिकाएँ
‘कुंदनवर्णी’!
रख रहे हैं
ख्याल
कुल-गोत्र का
हो रहे हैं-
विश्व-मानव!
उम्र के ठहराव पर
प्राप्त कर रहे हैं
अज्ञात यौवनाएँ।
‘‘ज्ञान में
समतुल्य
बेजुबान सहचर चाहिए’’
का दे रहे हैं-
विज्ञापन।
रच रहे हैं
विधन
ज्ञान का,
वैदिक रीति से प्राप्त कर रहे हैं
‘कन्या’
दान का!
पूरे इन्तजाम पर ला रहे हैं
विवाहिताएँ
उछलती-कूदती पसंद
के आधर पर लाई गईं
हो गईं-
‘कुलवंती’ ‘ध्ीरा’।
मर खप रही हैं
पुत्रा हेतु।
विज्ञान के सबसे क्रूर यंत्रा से गुजर रही हैं-
पद्मिनी नायिकाएँ।
पुत्रा की शिनाख़्त पर
बढ़ गयी है सेवा।
पति कूट रहे हैं
लवंग सुपारी का पान
ज़माने-भर का अपमान
चुकाने का बन गयीं हैं स्थान,
पद्मिनी नायिकाएँ।
रात-रात
दिन-दिन
जग रही हैं
कर रही हैं- सेवा
सापफ कर रही हैं
मल-मूत्रा
खा रही है मेवा
पद्मिनी नायिकाएँ।
और
इस तरह
जन रहीं हैं
भावी ‘मेध’
पद्मिनी नायिकाएँ।
मिथिलेश श्रीवास्तव
मिथिलेश श्रीवास्तव बिहार के गोपालगंज जिले के हरपुरटेंगराही गाँव में जन्मे| भौतिकी स्नातक तक की पढाई बिहार के साइंस कॉलेज पटना में हुई| नौकरी की तलाश में दिल्ली आना हुआ तब से दिल्ली में ही प्रवास| स्कूल के दिनों से ही कविता की ओर प्रवृत हो गए| कविता लिखने के साथ साथ समकालीन रंगमंच और चित्रकला और समसामयिक सामाजिक विषयों पर निरंतर लेखन |
पहला कविता संग्रह 'किसी उम्मीद की तरह' पंचकुला स्थित आधार प्रकाशन से छपा| दिल्ली राज्य की हिंदी अकादेमी द्वारा युवा कविता सम्मान से पुरस्कृत| दिल्ली विश्वविधालय के सत्यवती कॉलेज की साहित्य सभा उत्कर्ष के 'कविता मित्र सम्मान, २०११' से सम्मानित| 'सार्क लेखक सम्मान, २०१२' से सम्मानित | लिखावट नाम की संस्था के माध्यम से लोगों के बीच कविता के प्रचार- प्रसार का 'घर घर कविता', 'कैम्पस में कविता', 'कविता प्रसंग' 'कविता पाठ' सरीखे कार्यक्रमों का आयोजन| दिल्ली की अकादेमी आफ़ फाइन आर्ट्स एंड लिटीरेचर के कविता के 'डायलग' कर्यक्रम का संयोजक| सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में २००३ में हुए हिंदी भाषा 'कविता-सम्मलेन में कविता-पाठ| काठमांडू में बी पी कोइराला फाउनदेसन और नेपाल में भारतीय दूतावास की ओर से आयोजित भारत-नेपाल साहित्यिक आयोजन में काठमांडू में कविता-पाठ| हिंदुस्तान (हिंदी) दैनिक अख़बार में कला समीक्षक और जनसत्ता दैनिक अख़बार में रंगमंच समीक्षक के रूप में कार्य|
पढ़ते हैं मिथिलेश जी की कविता........
चप्पल झोला पर्स घड़ी
चप्पल झोला पर्स घड़ी अक्सर कहीं छूट जाने वाली चीजें हैं
अब यहीं मेरे जीवन के आधार हैं
इन्हीं को बचाए रखना मेरे जीवन का मकसद है साथी
यही है वे चीजें जो मुझे बचाए हुए हैं
चीजों की मनुष्यता को अब जाना है मैंने
कंधे से लटका हुआ झोला
अक्सर मुझे याद दिलाता है एक खोये हुए संसार का
जहाँ पहुचने से पहले बदल बरस जाते हैं
झोले के भीतर एक पैसे रखनेवाला पर्स हैबिना चेहरे की तस्वीरें रहती हैं उसमें
बच्चा पूछता था पर्स तुमने खो तो नहीं दिया दिखाओ मुझे
साफ करता हूं झोले को तो जिन्दगी की सारी गंदगी
मेरी आत्मा पर जम जाती है
मैं इतना काला तो नहीं था जितनी काली होती है कोयल
कुहुकती हुई पुकारती है किसी अदृश्य काल्पनिक असहाय प्रेमी को
उसे कोई कुछ नहीं कहता
कौन जनता पंख उसके कटे हों
चलते चलते भटकते भटकते
चप्पल के तलवे घिस गए हैं जैसे मेरी आत्मा
चप्पल तो ऐसे चरमरा रहा हैसे मेरा शरीर
घड़ी टिक टिक करती है मेरे मानों में
जैसे कोई रहस्य बोलना चाहती है
जैसे कोयल की कूक मै होता है
घड़ी जब बंद होती है तो एक पुरजा एक बैटरी एक बेल्ट
बदल जाने से चलने लगती है
चप्पल को सिलवाने की जरूरत अभी नहीं है
झोले के सीवन अभी उधरे नहीं है
झोले की ताकत मेरी चीजें सम्भाल लेती हैं
मेरे कंधे पर लटका वही मुझे कन्धा देता है साथी
नश्वर हैं सब चप्पल झोला पर्स घड़ी
जैसे नश्वर है मेरा शरीर पंचतत्वों मै विलीन होने को ब्याकुल
कोयल कब तक कूकेगी मेरे लिए उसका शरीर भी तो ब्याकुल होगा
पंचतत्वों मै विलीन होने के लिए .
प्रताप राव कदम
प्रताप राव कदम हिंदी के जाने माने कवि हैं! उन्होंने एम्.कॉम, पी.एच-डी तक शिक्षा प्राप्त की है! उनकी प्रकाशित कृतियाँ है - 'वसुधा' पत्रिका के अनुषंग एक कविता पुस्तिका -'कपड़ों में कबूतर"! "एक तीली बची रहेगी", "कहा उसने और हंसा", "बीज की चुप्पी" और " उसकी आँखों में कुछ "! "यह बाजार काल (गद्य संग्रह)!
कवि मुनि क्षमा सागर और नेपाल की मूल कवयित्री सीतारानी देवी की कविताओं का चयन और संपादन - 'चिड़िया लौट आई है' और 'चींटी के पग नैऊर बाजे"! "अब तक शमशेर" प्रक्रिया में! इसके अलावा देश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविता प्रकाशित! मराठी, गुजराती, पंजाबी में कविताओं का अनुवाद! समाज, साहित्य, संचार माध्यम, शिक्षा, बाज़ार एवं ज्वलंत सामयिक विषयों पर नियमित लेखन! अनेक महत्वपूर्ण प्रतिनिधि कविता संकलनों में शामिल! म.प्र. में संस्कृतिकर्मी के रूप में ख्याति!
सम्मान - शरद जोशी पुरस्कार, वागीश्वरी पुरस्कार, शरद बिल्लोरे स्मृति सम्मान, अहिल्या सम्मान, बस्तर अंचल का जनकवि ठाकुर पूरनसिंह स्मृति सूत्र सम्मान!
सम्प्रिति - श्री माखनलाल चतुर्वेदी शासकीय स्नाकोत्तर कन्या महाविद्यालय, खंडवा (म.प्र.) में प्राध्यापक!
प्रताप जी की एक कविता .........
फज़र की नमाज़ के वक़्त इमलीपुरा
दिन में खासतौर पर सुबह-शाम
यह मोहल्ला बिलकुल उत्तरप्रदेश, बिहार
से आने वाली ट्रेन का जेनेरल डिब्बा लगता है,
गर निकलो यहाँ से
बिना बताये जान जाते हैं यह मुस्लिम बस्ती है,
पर फज़र की नमाज़ के वक़्त
बदली रहती है रंगत इसकी
मयुन्सिपलिटी के नल आने का वक़्त
और नमाज़ का वक़्त एक ही होता है
जाने तो परलोक साधने निकल जाते हैं
जनानियाँ तो इहलोक में रहती
सड़क पर अपने कपड़ों, बर्तनों के साथ
इधर बर्तन भरते जाते
उधर वे पछीटती, खंगालती धोती हैं
बार-बार, फिर-फिर
पायजामे, पतलून, सलवार, बुरके का
पर जैसे के तैसा रहता है कपडा
नहीं होती दूर तलक जेहन में यह बात
की तसलीमा भी तो यही कर रही है
वह चाचा जो लाठी टेकते
जा रहे हैं मस्जिद की और
उसका शुक्रिया अदा करने कि
उसकी दी अक्ल से ही
सलीम को मामू के यहाँ भेजा
साईकिल की दुकान पर हुनर सीखने
इधर दंगे के बाद की धर-पकड़ में
वह नहीं आया लपेटे में
कबाड़ी का ठेला
शीर्षासन की मुद्रा में है
तांगा इस तरह टिका है
दो बांस उसके आकाश की और
हाथ उठा जैसे कुछ कह रहे हों
टाट के परदे को खसका
बर्तन कपडे लेकर एक जनानी आती है सड़क पर
ताँगे के हाथों की तरह उठे बांस यही कह रहे
जाने तो परलोक न साध पाए भले ही
जनानियाँ इहलोक को जरूर धो-धाकर
बनायेंगी रहने लायक!
संजीव कौशल मूलतः अलीगढ के रहने वाले हैं! इन्होने अलीगढ मुस्लिम यूनिवेर्सिटी से शिक्षा प्राप्त की है! वर्तमान में वे दिल्ली यूनिवेर्सिटी में प्राध्यापक हैं! संजीव जी की कवितायेँ आम इंसान और आस-पास रहने वाली चीज़ों पर सहज शब्दों में बुना गया ताना बाना हैं!
आईये पढ़ते हैं संजीव कौशल की कुछ लघु कवितायेँ..........
घड़ीवाला
तमाम व़क्तों को
अपने सीने पर टॅंाके
ये आदमी
आदमी कम
अजायबघर ज्यादा लगता है अब
जिसका व़क्त
कहीं खो गया है उससे
ये आदमी
चलता रहता है सूइयों सा
सारा दिन
घूमता रहता है
पुरानी दिल्ली स्टेशन पर
एक प्लैटफॅार्म से दूसरे प्लैटफॅार्म
दूसरों को उनका व़क्त सौंपने के लिये
बस्तियाँ
जमुना के किनारे
उधड़ती उस बस्ती में
बस एक मंदिर
खड़ा है
और खड़ी हैं
कुछ मूर्तियाँ
जिनकी आंखें
जब से खुली हैं
देख रही हैं
इस बसती
उजड़ती
बस्ती को
और मंदिर से चारों तरफ
फैलती गहराती
परिधियों के एक छोर पर
खड़ा है
बुलडोज़र
धूल में अटा हुआ
शान्त
रात-दिन
सुबह-सुबह स्टेशन पे
हाथों के बल
शरीर को घसीटते
अधेड़ उम्र के
आदमी ने
मेरे पैर छू लिए
एक रूपये के लिए
बन्द मुठ्ठी को
माथे से लगाते हुए बोला
भगवान ने सबको
बराबर बनाया है
आज 23 मार्च है
आज रात दिन बराबर हैं
उसकी ये बात कई सवाल छोड़ गयी
पहला ये कि
उसे ये सब
क्यों पता था
दूसरा ये कि
रात और दिन
कैसे बराबर थे
तीसरा ये कि
वो खुद
कहाँ पड़ा था
दिन में या रात में
वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक श्री विश्वनाथ त्रिपाठी जी का जन्म बस्ती (अब सिद्धार्थनगर) जिले के बिस्कोहर गाँव में हुआ! उन्होंने हिंदी विषय में एम्-ए, पी.एच-डी किया है! उनकी अब तक की प्रकाशित कृतियाँ हैं लोकवादी तुलसीदास, मीरा का काव्य, हिंदी आलोचना, नंगा तलाई का गाँव,हिंदी साहित्य का सरल इतिहास, देश के इस दौर में!
प्रसिद्ध आलोचक, लेखक और सबसे बढ़कर एक बेजोड़ अध्यापक विश्वनाथ त्रिपाठीने अपने जीवन के 80 साल पूरे कर लिए. लेकिन अभी भी वे भरपूर ऊर्जा से सृजनरत हैं. अभी हाल में ही उनकी किताब आई है 'व्योमकेश दरवेश', जो हजारी प्रसाद द्विवेदी के जीवन-कर्म पर है.
उन्ही के शब्दों में...........
मेरी बहुत इच्छा है कि मैं अपने गांव के दलितों और वेश्याओं पर लिखूं। वहां बेडि़नियों के जीवन पर। स्वास्थ्य ठीक रहा तो चाहता हूं कि गांव जाकर कुछ महीने रहूं और इस पर लिखूं कि गांव कैसे बदल गया है। आज का गांव प्रेमचंद का गांव नहीं है। वैसा रोमांटिसिज्म, शोषण-अत्याचार का वो रूप भी वो नहीं है। जाति प्रथा तेजी से मिट रही है। दलितों के जीवन में एक नया सवेरा आ रहा है। इस तरह दलितों के जीवन में खुशी और उल्लास का नया तत्व आया है, मैं उस पर लिखना चाहता हूं। फिर अपने शिष्यों पर मैंने संस्मरण लिखे थे। उसमें कुछ चीजें रह गई हैं उन्हें लिखना चाहता हूं। इसके अलावा कहानी पर एक सैद्धांतिक किताब लिखना चाहता हूं। लेकिन फिलहाल यह किताब लिख ली है। अब कुछ दिन आराम करना चाहता हूं। (जानकी पुल से साभार)
सभी रचनाएँ एक से बढ़ कर एक सुन्दर....बधाई अंजू जी....
ReplyDeleteमेरा परिचय सुधार दीजिए. शोषण के अभयारण्य और मार्क्स-जीवन और विचार मेरी प्रकाश्य नहीं, प्रकाशित पुस्तकें हैं (वह भी लगभग अनामंत्रित के पहले :)..और "तुम्हारी दुनिया में इस तरह" नाम पहले दिया था संकलन को लेकिन बाद में इसे "लगभग अनामंत्रित" कर दिया गया...सो अभी शीघ्र प्रकाश्य कुछ नहीं :)
ReplyDeleteAshok....so to main bhi janti hoon sab copy-paste ka pher hai....ya bhsha ka....:))
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