Sunday 4 December 2011

मोहन श्रोत्रिय जी का एक व्यक्तव्य



कल मैंने मोहन श्रोत्रिय सर की वाल पर उनका एक व्यक्तव्य पढ़ा,  पिछले कई दिनों से मैंने मोहन सर को इसी तरह के मुद्दों को उठाते और बराबर उन पर अपनी असहमति दर्ज करते देखा है!  मोहन सर ने हमेशा कविता को लिंग भेद और वरिष्टता के पूर्वाग्रह से अलग रखके देखने की हिमायत की है!  मेरे लिए और मेरे जैसे अनेक नवोदित लोगों के लिए, जो बराबर लिखते हुए कुछ सार्थक करने की चाह में संघर्षरत हैं मोहन सर एक ऐसे वटवृक्ष की तरह हैं, जिसकी छाह में नवांकुर बचे रहते हैं पूर्वाग्रहों से ग्रसित आलोचनाओं की कड़ी धूप से..... मोहन सर ने हमेशा लेखन को स्त्री लेखन या पुरुष लेखन जैसे अलंकारों से मुक्त करने का आग्रह किया है!  कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उनकी तब होती है जब नए कवियों कि कविताओं को इसलिए खारिज कर दिया जाता है कि लोगों को लगता है  कि नए लोग वे कविता के प्रति गंभीर नहीं हैं, या लेखन को सामाजिक सरोकारों से नहीं जोड़ा गया,  या कविता में वो गहराई या जटिलता नहीं है जो पुराने समय के कवियों के पास थी!  

उनके शब्दों में "क्या पिछली पीढ़ी कवि कर्म को लेकर आज के नवागंतुक कवियों की तुलना में सचमुच अधिक गंभीर थी? यदि हां, तो क्या यह हर कविता लिखने वाले के बारे में सत्यनिष्ठा से और प्रमाण सहित कहा जा सकता है? यानि उस दौर में रचनाएं पूरी पकने के बाद ही लोगों के सामने आती थी? हो सकता है कि मैं ग़लत होऊं, पर उससे भी पहली पीढ़ी में जब छंद-सिद्ध कवि छाये हुए थे, तो क्या "तुक्कड़" कवि कोई उछल-कूद मचाते नहीं दिखते है. मेरी समझ यह है - हो सकता है आपके लिए इसके कोई मायने न हों - कि हर दौर में अच्छी और खराब कविता साथ-साथ लिखी जा रही होती है. समय गुज़रने के साथ बहुत कुछ छन जाता है, समय की छलनी में. आज की कविता को लेकर चलने वाली किसी भी चर्चा में महिला कवियों को ( "रसोई में छोंक लगाते हुए कविता रच देने का उल्लेख करने की क्या ख़ास ज़रुरत आ पड़ती है?) एक अलग श्रेणी बना कर क्यों रख दिया जाता है"? कविता का अच्छा/बुरा होना कबसे लैंगिक आधार पर तय होने लगा? सरोकारों की बात भी वायवी ढंग से क्यों की जानी चाहिए? क्या हमने कभी यह जानने/ बताने की कोशिश की है कि कविता लिखते हुए पुरुष क्या कर रहे होते हैं? कसौटी तो दोनों के लिए एक ही होनी चाहिए. नहीं? सोच कर देखिए."


"सईद अयूब ने इस स्टेटस पर टिप्पणी करते हुए यह महसूस किया कि मैंने नाराज़गी व्यक्त की. चूंकि ऐसा नहीं है, मैंने अपना दृष्टिकोण और विस्तार से उनके सामने रखा. उसे मैं यहां भी उद्धृत कर रहा हूं क्योंकि उनके स्टेटस की 'जड़ यहां है." सईद, मैंने कोई नाराज़गी नहीं, बल्कि आशुतोष जी के स्टेटस पर महिला कवियों संबंधी अंश से असहमति व्यक्त की थी, अपने स्टेटस में. तो ज़ाहिर है कि मेरे स्टेटस का आधार कहीं वहीं टिका है. मैं निजी तौर पर, कविता में या किसी भी अन्य व्यवसाय (profession) में श्रेष्ठता की कसौटीको लिंग- आधारित रूप में स्वीकार नहीं करता. पूर्वाग्रह हो सकते हैं लोगों के. ऐसा कैसे हो सकता है कि स्त्री और पुरुष के अनुभव संसार में कोई बुनियादी फ़र्क़ हो? सवाल चीज़ों को देखने और उन्हें अन्य चीज़ों से जोड़ कर देखने का तो हो सकता है, होना भी चाहिए. लेकिन यहां भी एक पेंच (catch) है. अपने अनुभवों और अनुभूतियों को सर्विक रूप देना फिर कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो पुरुष की ही विशिष्टता हो, एकांतिक रूप से. कल कोई यह कहे कि फलां कवि हल्दी-मिर्च की पुडिया बांधते-बांधते कविता लिख लेता है, तो यह कविता पर नहीं, कवि के साहित्येतर काम पर टिप्पणी है. आपको क्या लगता है? मंगलेश की पीढ़ी के सामाजिक सरोकारों का ज़िक्र करते हुए आशुतोष जी लिखते हैं, मेरे स्टेटस पर ही, कि उस पीढ़ी का ज़ोर चीज़ों की सुंदरता को बचाने पर था. मेरा सवाल है, कि क्या सबका? कोई टकसाली कविताएं तो लिखी नहीं जा रही थीं? ऐसा तो कभी नहीं होता. रचनाएं कच्ची, अध-पकी, ढंग दे सिकी हुई, और जली हुई हो सकती हैं, रोटी की तरह. पहली और चौथी को खारिज कर दीजिए, दूसरी को मार्ग दर्शन और तीसरी को शाबासी/ प्रोत्साहन दीजिए. हार पुराणी पीढ़ी को अपने बारे में न जाने क्या क्या कहने की आदत होती है. इससे बचें. पिताओं के इस रुख की वजह से मैंने पुत्रों को पिता के प्रति शत्रु भावविक्सित करते हुए देखा है, और परिणाम स्वरूप परिवारों को बिखरते. कविता के क्षेत्र में तो यह बिल्कुल नहीं चलना चाहिए. कविता कैसी लगी- अच्छी या अच्छी नहीं, तो कह डालिए, और कृपावंत होकर यह भी बताते चलिए कि क्यों? मैं समझता हूं कि ऐसा हो सके, तो कवि और आलोचक के बीच अनावश्यक वैमनस्य का भाव तिरोहित होने लगेगा.?" आलोचक को भी तो अपना धर्म मित्रवत ही निभाना चाहिए, क्योंकि इसी में कविता का भला है,और आलोचना की प्रतिष्ठा भी."

मेरे ख्याल से जब तक उनके जैसे वरिष्ठ रचनाकार स्वस्थ आलोचना के साथ गंभीर लेखन से सरोकार रखते हैं, कविता का भविष्य उतना ही सुरक्षित है जितना कल था!  कविता को लिंग भेद से परे रखा जाना अंततः कविता के ही हित में जायेगा! नए रचनाकारों को उनके मार्गदर्शन और सार्थक साहित्य के हित में उनकी सक्रियता के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए  ताकि निष्पक्ष होकर केवल और केवल विशुद्ध कविता रची जा सके!  


Thursday 20 October 2011

मेरी साथी..........पुस्तकें




पुस्तकें ही पुस्तकें....चारों और पुस्तकें....कथा-कहानी, कविता, उपन्यास, संस्मरण और न जाने किन किन विषय की पुस्तकें!  और उनके बीच खड़ी मैं अभिभूत हो उन्हें निहार रही थी....उस चिरपरिचित गंध को जैसे समो लेना चाह रही थी!  कुछ दिन पहले कई बरस बाद दिल्ली पब्लिक लाईब्रेरी जाना हुआ!  समय का पहिया मानो उल्टा घूमते हुए मुझे फिर उसी संसार में ले गया जहाँ लाईब्रेरी मेरा दूसरा घर हुआ करती थी और पुस्तकें प्रिय साथी!

बचपन में जब मेरा दाखिला विद्यालय में करवाया गया तो सामान्य बालिकाओं की तरह मैंने भी इसे सहजता से लिया!  मैं अपने गुड्डे-गुड़ियों में मगन रहने वाली एक शांत बालिका थी! उन्ही दिनों पड़ोस में रहने वाली एक लड़की ने, जो वय और कक्षा में मुझसे २ साल वरिष्ठ थी बरबस ही मेरा ध्यानाकर्षित किया!  उसने वजीफे के परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था!  सुबह की प्रार्थना-सभा में उसका अभिनन्दन किया गया....जोरदार तालियों से स्वागत हुआ....फिर सब अध्यापिकाओं ने पीठ थपथपा कर प्यार किया!  वह सबके आकर्षण का केंद्र बन गयी!  और मैं अपलक उसे निहार रही थी! रोज़ मेरे साथ घर-घर खेलने वाली वह लड़की क्षण भर में विशिष्ट हो गयी!


विद्यालय से घर आई तो वह दृश्य भुलाये नहीं भूल रहा था!  स्वभाव से अंतर्मुखी होने के कारण मैं किसी से मन की बात नहीं कह पाती थी!  आखिरकार मैंने अपने दादाजी, जो मेरे सखा भी थे,  के पास  अपने मन की बात कह सुनाई...."दादाजी, वे तालियाँ मुझे भी चाहिए"...दादाजी ने क्षण भर मुझे निहारा और बोले कि यह तो बिलकुल भी मुश्किल नहीं है बस तुम्हे ध्यान लगाकर पढना होगा!  बस मैंने खुदसे और दादाजी से वायदा किया कि मैं इस परीक्षा में प्रथम आकर दिखाउंगी!  किन्तु कुछ दिन बाद ही मुझे पता चला कि इसके लिए मुझे २ साल प्रतीक्षा करनी होगी! 

मैं मन लगाकर पढ़ती गयी! समय बीतता गया और तीसरी कक्षा के प्रथम-सत्र में मैंने प्रथम स्थान के साथ ९०% अंक प्राप्त किये! लिहाजा मेरा नाम अन्य ४ छात्राओं के साथ इस परीक्षा के लिए भेज दिया गया! लगभग नाचते हुए मैंने ये बात दादाजी को बताई! अगले कुछ महीने मेरे लिए व्यस्तता से भरे थे!  जाने क्यों मेरी कक्षा-अध्यापिका श्रीमती सुशीला खट्टर को लगता था कि मैं इस परीक्षा में न केवल उत्तीर्ण होहुंगी वरन कोई उत्तम स्थान भी प्राप्त करुँगी!  समाचार-पत्र, बल पत्रिकाएं, कोर्स और लाईब्रेरी की पुस्तकें, सामान्य ज्ञान की पुस्तकें, इन सबसे वे मेरी मित्रता करवाती गयी!  मेरे लिए नृत्य, खेल इत्यादि सभी गतिविधियाँ रोक दी गयी...पढाई और केवल पढाई.....खैर परीक्षा हुई और सचमुच करोल बाग जोन के ७६ विद्यालाओं में मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया!  मैंने क्या किया था मैं खुद नहीं जानती थी, प्रमाण पत्र या धनराशि का भी मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं था!  फिर वो दिन आया जिसके लिए मैंने ये सारी कवायद की थी!  सुबह की प्रार्थना-सभा में मेरे नाम की घोषणा हुई,  पूरा सभागार तालियों से गूँज उठा! सारी अध्यापिकाओं ने मेरी पीठ थपथपाई और मुझे प्यार किया! और मेरी सुशीला मैम मुझे गर्व से यूँ निहार रही थीं जैसे सुंदर चित्र पूर्ण होने के बाद कोई चित्रकार उसे निहारकर आल्हादित होता है!  मुझे यही सब तो चाहिए था!  

खैर उसे बाद ऐसे मौके आते रहे पर वो पहला अभिनन्दन मेरे बालमन पर अमिट छाप छोड़ गया है! पुस्तकों से मेरी दोस्ती आज भी बरक़रार है और सदैव रहेगी!  इसके लिए मैं अपनी अध्यापिका की आजीवन आभारी रहूंगी! शेष फिर कभी.........

Friday 7 October 2011

लोकनायक जयप्रकाश नारायण


आज लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी की ३२वी पुण्यतिथि है!  पिछले कुछ दिनों से उनके बारे में ही पढ़ रही थी! सच कहूं तो हमारी पीढ़ी जे.पी. के बारे में ज्यादा नहीं जानती है! किन्तु पिछले दिनों अन्ना हजारे मोवमेंट के दौरान श्री राजीव मित्तल जी से कई बार उनके बारे में बात हुई तो जे.पी. को जानने की प्रबल उत्कंठा जागृत हुई! 

वह महामानव जिसने सन बयालीस के 'भारत छोडो' आन्दोलन में बड़ी प्रभावी भूमिका निभाई थी, समाजवादी कांग्रेस के अग्रणी नेता के रूप में देश के नवयुवकों को नयी दिशा दी थी! चम्बल घटी के अक्खड़ डाकुओं से विनम्र आत्म-समर्पण प्राप्त किया था, जो सर्वोदय और अन्त्योदय जैसी लहरों के प्राणदाता बने थे! जिन्होंने संपूर्ण क्रांति जैसा लोकोद्धारक कार्यक्रम केवल सिद्धांत रूप में पेश ही नहीं किया, अपितु उसे कार्यान्वित करने के लिए भरसक प्रयास भी किया था और जो 1977 में सभी विरोधी दलों के बीच ऐक्य स्थापित करने वाली प्रेरक शक्ति के रूप में उभरे थे! ऐसे वैविध्य-पूर्ण मानव की जीवन कथा को पढ़कर मैं धन्य हो गयी!  

मेरा मानना है आज भी जे.पी. के जीवन और विचारों का अध्ययन देश के युवाओं को आज की क्षुद्र, भ्रष्ट और पतित राजनीति का परित्याग करके उसे पुनः एक उच्च  नैतिक धरातल पर प्रस्थापित करने की प्रेरणा देगा, यह मेरा परम विश्वास है! जे. पी. आधुनिक भारत के अनन्यतम क्रांति शोधक थे! मार्क्सवाद से समाजवाद और समाजवाद से सर्वोदय तक की जे.पी. की क्रांति-यात्रा वास्तव में उनके हृदय की असीम करुणा, समाज के सबसे गरीब और त्रस्त एवं दुखी तबके के प्रति उनकी संवेदना एवं दर्द से ही प्रेरित थी! शायद हमारी सबसे बड़ी असफलता, खामी एवं कमजोरी इसी तथ्य में निहित है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हम गरीबी, अशिक्षा और शोषण से आम आदमी को मुक्ति नहीं दे पाए! साम्प्रदायिकता, हिंसा एवं आतंक की प्रचंड ज्वाला में यही निरीह आम आदमी झोंका जाता रहा है जो जे.पी. के समस्त प्रयासों एवं विचारों का केंद्र बिंदु था!

इस नैराश्यपूर्ण वातावरण में जे.पी. के विचार आज भी उतने ही प्रेरक, सामयिक और प्रासंगिक हैं जितने वे कल थे! आपातकाल में जेल के एकांतवास में  लोकतंत्र के इस महानतम समर्थक के गहन विक्षोभ एवं करुणा का परिणाम है उनकी ये प्रथम कविता...................

जीवन विफलताओं से भरा है
सफलताएँ जब कभी आयीं निकट
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से
तो क्या वह मूर्खता थी?
नहीं!
सफलता और विफलता कि परिभाषाएं भिन्न हैं मेरी
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमंत्री क्या?
किन्तु मुझ क्रांतिशोधक के लिए
कुछ अन्य पथ ही मान्य, उद्दिष्ट थे!
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ संघर्ष के, संपूर्ण क्रांति के!
जग जिसे कहता विफलता
थीं शोध कि वे मंजिलें,
मंजिलें वे अनगिनत हैं
गंतव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो!
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को
तो विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी
और यह विफल जीवन 
शत शत धन्य होगा 
यदि समानधर्मी प्रिय तरुणों का
कंटकाकीर्ण मार्ग 
यह कुछ सुगम बना जाये!

उनके विचारों का अनुकरण ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है!  उन्ही के शब्दों में वास्तविक क्रांति वो क्रांति है जो जीवन मूल्यों में क्रांति लाने में सफल हो! जयहिंद!

Saturday 17 September 2011

मुझे याद करना

जब कभी शाम गहराए तो मुझे याद करना,
चांदनी छत पे जो आये तो मुझे याद करना !

महक रही हो बयार, जागे हों अहसास नए,
सर्द हवा छू के जो जाये तो मुझे याद करना !

मेरी तस्वीर सिरहाने से लेकर तुम निहारोगे,
उसमें जब अपना अक्स आये तो मुझे याद करना!

मेरे खतों को तुम पढना और जरा मुस्कुराना,
जब किसी बात पे दिल आये तो मुझे याद करना!

यूं तो हर लम्हा, हरदम मैं तुम्हारे दिल में रहती हूँ,
फिर भी ग़र याद सताए तो मुझे याद करना !

तुम्हारे लब पे हंसी बनके रहूँ वादा है मेरा,
फिर भी कभी ग़म के हो साए तो मुझे याद करना!
 
ख्वाब में एक मुलाकात का वादा हो अपना,
फिर भी जब नींद न आये तो मुझे याद करना!