पुस्तकें ही पुस्तकें....चारों और पुस्तकें....कथा-कहानी, कविता, उपन्यास, संस्मरण और न जाने किन किन विषय की पुस्तकें! और उनके बीच खड़ी मैं अभिभूत हो उन्हें निहार रही थी....उस चिरपरिचित गंध को जैसे समो लेना चाह रही थी! कुछ दिन पहले कई बरस बाद दिल्ली पब्लिक लाईब्रेरी जाना हुआ! समय का पहिया मानो उल्टा घूमते हुए मुझे फिर उसी संसार में ले गया जहाँ लाईब्रेरी मेरा दूसरा घर हुआ करती थी और पुस्तकें प्रिय साथी!
बचपन में जब मेरा दाखिला विद्यालय में करवाया गया तो सामान्य बालिकाओं की तरह मैंने भी इसे सहजता से लिया! मैं अपने गुड्डे-गुड़ियों में मगन रहने वाली एक शांत बालिका थी! उन्ही दिनों पड़ोस में रहने वाली एक लड़की ने, जो वय और कक्षा में मुझसे २ साल वरिष्ठ थी बरबस ही मेरा ध्यानाकर्षित किया! उसने वजीफे के परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था! सुबह की प्रार्थना-सभा में उसका अभिनन्दन किया गया....जोरदार तालियों से स्वागत हुआ....फिर सब अध्यापिकाओं ने पीठ थपथपा कर प्यार किया! वह सबके आकर्षण का केंद्र बन गयी! और मैं अपलक उसे निहार रही थी! रोज़ मेरे साथ घर-घर खेलने वाली वह लड़की क्षण भर में विशिष्ट हो गयी!
विद्यालय से घर आई तो वह दृश्य भुलाये नहीं भूल रहा था! स्वभाव से अंतर्मुखी होने के कारण मैं किसी से मन की बात नहीं कह पाती थी! आखिरकार मैंने अपने दादाजी, जो मेरे सखा भी थे, के पास अपने मन की बात कह सुनाई...."दादाजी, वे तालियाँ मुझे भी चाहिए"...दादाजी ने क्षण भर मुझे निहारा और बोले कि यह तो बिलकुल भी मुश्किल नहीं है बस तुम्हे ध्यान लगाकर पढना होगा! बस मैंने खुदसे और दादाजी से वायदा किया कि मैं इस परीक्षा में प्रथम आकर दिखाउंगी! किन्तु कुछ दिन बाद ही मुझे पता चला कि इसके लिए मुझे २ साल प्रतीक्षा करनी होगी!
मैं मन लगाकर पढ़ती गयी! समय बीतता गया और तीसरी कक्षा के प्रथम-सत्र में मैंने प्रथम स्थान के साथ ९०% अंक प्राप्त किये! लिहाजा मेरा नाम अन्य ४ छात्राओं के साथ इस परीक्षा के लिए भेज दिया गया! लगभग नाचते हुए मैंने ये बात दादाजी को बताई! अगले कुछ महीने मेरे लिए व्यस्तता से भरे थे! जाने क्यों मेरी कक्षा-अध्यापिका श्रीमती सुशीला खट्टर को लगता था कि मैं इस परीक्षा में न केवल उत्तीर्ण होहुंगी वरन कोई उत्तम स्थान भी प्राप्त करुँगी! समाचार-पत्र, बल पत्रिकाएं, कोर्स और लाईब्रेरी की पुस्तकें, सामान्य ज्ञान की पुस्तकें, इन सबसे वे मेरी मित्रता करवाती गयी! मेरे लिए नृत्य, खेल इत्यादि सभी गतिविधियाँ रोक दी गयी...पढाई और केवल पढाई.....खैर परीक्षा हुई और सचमुच करोल बाग जोन के ७६ विद्यालाओं में मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया! मैंने क्या किया था मैं खुद नहीं जानती थी, प्रमाण पत्र या धनराशि का भी मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं था! फिर वो दिन आया जिसके लिए मैंने ये सारी कवायद की थी! सुबह की प्रार्थना-सभा में मेरे नाम की घोषणा हुई, पूरा सभागार तालियों से गूँज उठा! सारी अध्यापिकाओं ने मेरी पीठ थपथपाई और मुझे प्यार किया! और मेरी सुशीला मैम मुझे गर्व से यूँ निहार रही थीं जैसे सुंदर चित्र पूर्ण होने के बाद कोई चित्रकार उसे निहारकर आल्हादित होता है! मुझे यही सब तो चाहिए था!
खैर उसे बाद ऐसे मौके आते रहे पर वो पहला अभिनन्दन मेरे बालमन पर अमिट छाप छोड़ गया है! पुस्तकों से मेरी दोस्ती आज भी बरक़रार है और सदैव रहेगी! इसके लिए मैं अपनी अध्यापिका की आजीवन आभारी रहूंगी! शेष फिर कभी.........