'कविता पाठ - दो '
लिखावट
(कविता और विचार का मंच)
सादर आमंत्रित करता है
'कविता पाठ - दो ' कार्यक्रम में
दिनांक : 24 अप्रैल, 2012
समय: ५.३० बजे सायं से
स्थान : लेक्चर रूम, त्रिवेणी कला संगम, २०५, तानसेन मार्ग, नई दिल्ली-११०००१
अध्यक्षता : वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह
आमंत्रित कवि:
विनोद कुमार सिन्हा
(विनोद कुमार सिन्हा की रचनाशीलता पर बोलेंगे मनोज कुमार सिंह)
तजेंद्र सिंह लूथरा
(तजेंद्र सिंह लूथरा की कविता पर कुमार मुकुल की टिप्पणी )
उमेश चौहान
( उमेश चौहान के रचना संसार पर सुशील सिद्धार्थ की टिप्पणी)
मिथिलेश श्रीवास्तव
(मिथिलेश श्रीवास्तव की कविता पर वंदना शर्मा की टिप्पणी)
लीलाधर मंडलोई
(लीलाधर मंडलोई की कविता पर मदन कश्यप की टिप्पणी)
संचालन: अनुज
धन्यवाद ज्ञापन : अंजू शर्मा
आयोजन सहयोग: लिखावट मित्र मंडली: अनीता श्रीवास्तव, विभा मिश्र,
अंजू शर्मा, राजीव वर्मा, कृष्ण कुमार, सुनील मिश्र, अशोक चंद्र
सम्पर्क :लिखावट: अनीता श्रीवास्तव, फोन: ०९८६८१७४८५८
आईये मिलते हैं 'कविता पाठ - दो' में कुछ कवियों और लिखावट से जुड़े कुछ साथियों से।.....
अंजू शर्मा
अंजू शर्मा दिल्ली विश्वविध्यालय के सत्यवती कॉलेज से वाणिज्य स्नातक हैं! ‘स्त्री मुक्ति’ से जुड़े काव्य लेखन में एक चर्चित नाम हैं! विभिन्न काव्य-गोष्ठियों में सक्रिय भागेदारी! अनेक पत्रिकाओं व वेब पत्रिकाओं में कविताएं व लेख प्रकाशित! बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित काव्य संकलन "स्त्री होकर सवाल करती है' में कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं! संप्रति: ‘अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर’ के कार्यक्रम 'डायलॉग' और संस्था 'लिखावट' के आयोजन 'कैंपस में कविता' और "कविता-पाठ" से बतौर बतौर कवि और रिपोर्टर भी जुडी हुई हैं! कविताओं के ब्लॉग 'उड़ान अंतर्मन की" का संपादन करती हैं और कई पत्रिकाओं में साहित्यिक कॉलम भी लिख रही हैं!
पढ़ते हैं उनकी कुछ कवितायेँ ...........
"महानगर में आज"
अक्सर, जब बिटिया होती है साथ
और करती है मनुहार एक कहानी की,
रचना चाहती हूँ सपनीले इन्द्रधनुष,
चुनना चाहती हूँ कुछ मखमली किस्से,
हमारे मध्य पसरी रहती हैं कई कहानियां,
किन्तु इनमें परियों और राजकुमारियों के चेहरे
इतने कातर पहले कभी नहीं थे,
औचक खड़ी सुकुमारियाँ,
भूल जाया करती हैं टूथपेस्ट के विज्ञापन,
ऊँची कंक्रीट की बिल्डिंगें,
बदल जाती आदिम गुफाओं में
सींगों वाले राक्षसों के मुक्त अट्टहास
तब उभर आते हैं
"महानगर में आज" की ख़बरों में,
गुमशुदगी से भरे पन्ने
गायब हैं रोजनामचों से,
और नीली बत्तियों की रखवाली ही
प्रथम दृष्टतया है,
समारोह में माल्यार्पण से
गदगद तमगे खुश है
कि आंकड़े बताते हैं अपराध घट रहे हैं,
विदेशी सुरा, सुन्दरी और गर्म गोश्त
मिलकर रचते हैं नया इतिहास,
इतिहास जो बताता है
कि गर्वोन्मत पदोन्नतियां
अक्सर भारी पड़ती हैं मूक तबादलों पर...............................
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी
हाँ मेरा हृदय
आकर्षित है
उस दृष्टि के लिए,
जो उत्पन्न करती है
मेरे हृदय में
एक लुभावना कम्पन,
किन्तु
शापित नहीं होना है मुझे,
क्योंकि मैं नकारती हूँ
उस विवशता को
जहाँ सदियाँ गुजर जाती हैं
एक राम की प्रतीक्षा में,
इस बार मुझे सीखना है
फर्क
इन्द्र और गौतम की दृष्टि का
भिज्ञ हूँ मैं श्राप के दंश से
पाषाण से स्त्री बनने
के पीड़ा से,
लहू-लुहान हुए अस्तित्व को
सतर करने की प्रक्रिया से,
किसी दृष्टि में
सदानीरा सा बहता रस प्लावन
अदृश्य अनकहा नहीं है
मेरे लिए,
और मन जो भाग रहा है
बेलगाम घोड़े सा,
निहारता है उस
मृग मरीचिका को,
उसे थामती हूँ मैं
पर ये किसी हठी बालक सा
मांगता है चंद्रखिलोना,
क्यों नहीं मानता
कि किसी श्राप की कामना
नहीं है मुझे
संवेदनाओ के पैराहन के
कोने को
गांठ लगा ली है संस्कारों की
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी!
बिनोद कुमार सिन्हा

बिनोद कुमार सिन्हा मूलतः झारखण्ड से हैं,
जन्म 01.11.1958 को गिरिडीह , झारखंड में.
1987 से भारतीय राजस्व सेवा में , सम्प्रति आयकर आयुक्त के पद परदिल्ली में पद्स्थापित. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविताएं और लेख प्रकाशित कविता संग्रह – मोरपन्ख 2009 में प्रकाशित जिसमें कविता, गीत औरग़ज़ल का संकलन. वे एक संवेदनशील कवि हैं और कविता के सन्दर्भ में उनका कहना है कि मेरी कविता समाज में क्रांति ला सकती है ऐसी खामख्याली मुझे नहीं हैं! यदि कविता कुछ बदल सकती है तो मुझे इंसानियत के करीब ला सकती है, उसके आगे का रास्ता क्या होगा कहना मुश्किल है पर यदि मेरी कविता एक भी अच्छा इंसान बना सके तो मों कविता को सार्थक समझूंगा!
पढ़िए बिनोद जी की कुछ कवितायेँ जो वे "कविता-पाठ-दो" में पढने वाले हैं.......
हुसैन होने के मानी
क्या मानी हैं
हुसैन होने के?
हमारे सुदूर बचपन में
छोटे शहर के
सिनेमाहाल पर लगा
मुग़ले – आज़म का
विशाल पोस्टर
भारत-भवन की
कलादीर्घा में
जीवंत होते
दिशाओं को जीतनेवाले
बेमिसाल अश्व
गजगामिनी और मीनाक्षी के
स्वप्न साकार करता
कोई सृजनहार
या
भारतमाता का ऐसा बेटा
जिसके लिये शस्यश्यामला
बदल गयी तपते रेगिस्तान में
मन कह्ता है
कभी जरूर आयेगा
बूढी होती मान्यताओं
लंगडाती सांस्कृतिक सोच को
फिर से टोकनेवाला
दावा करेगा कलाकार की अस्मिता
हुनर और स्वतंत्रता का
सैकडों – हज़ारों साल तक
नमालूम-सी आवाज़ में.
ग़ज़ल
बाबुल के घर की चिडिया, मैया की गोरैया
क्यों कर पड़ा उडाना, इन बेटियों को इक दिन.
मंदिर की घंटियों-सी मासूम थी हँसी
क्यों कर पड़ा रुलाना इन बेटियों को इक दिन.
हर सिम्त एक ज़ुनून एक अंधेरी गली है
शायद मिले ठिकाना इन बेटियों को इक दिन.
क़ुदरत की पाक़ नेमतें सब रूठ जायेंगी
तरसेगा तब ज़माना इन बेटियों को इक दिन.
लीलाधर मंडलोई

१९५३ में मध्य प्रदेश के छिंदवाडा कसबे में जन्म! समकालीन कविता के महत्वपूर्ण कवि के रूप में आठ कविता संग्रह और दो चयन प्रकाशित हो चुके हैं! साहित्यिक अवदान के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक सम्मान और पुरस्कारों (पुश्किन सम्मान, शमशेर सम्मान, रजा, नागार्जुन, दुष्यंत कुमार और रामविलास शर्मा सम्मान, साहित्य अकादमी से साहित्यकार और कृति सम्मान) से सम्मानित लीलाधर मंडलोई जी एक करिश्माई वक्ता हैं, उन्हें सुनना इसलिए भी अच्छा लगता है कि वे सहज सम्प्रेषण के कारण श्रोता के साथ जो तादाम्य स्थापित कर लेते हैं वह अपने आप में अद्भुत है!
आईये पढ़ते हैं उनकी कुछ कवितायेँ।.....
तानागिरू*
और दिनों से एकदम अलग है आज का दिन यहाँ
सुबह-सुबह निकलेगा पहली बार आज
उठाये तीर-कमान अपने बलिष्ठ कंधे पर
और प्रतीक्ष में होंगे सब बच्चे, जवान, बूढ़े
झूम उठेगा समूचा गाँव
मार के लौटेगा जब नुकीले दांतों वाला खतरनाक सूअर
उसके जीवन का अद्भुत समय है
की होगा आरूढ़ शिकार के सीने पर
निकलेगा रक्त, जमाएगा खून के थक्के
और खायेगा आनंद-विभोर हो पहले पहल
(अपने शिकार को गर्व से खाने का पहला दिन है आज)
बीस दिनों तक रोज़ जायेगा जंगलों में अकेला
और मार लायेगा एक से एक खतरनाक सूअर वह
प्रतीक्षा में ओंगियों का गाँव
रोज़ देखेगा उसका भरपूर जवान होना
और संस्कारों से एकदम अलग है 'तानागिरू'
डुगांगक्रीक की सबसे बड़ी खबर है आज
की अभी अभी एक लड़का हुआ है जवान
और इस तरह एक और रक्षक ओंगियों का
* तानागिरू : अंदमान की दुर्लभ जनजाति ओंगी का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार समारोह है तानागिरू ! यह ओंगी के जवान सिद्ध होने पर आयोजित किया जाता है!
मनुष्य जल
हरी मखमली चादर पे उछरी
वाह! ये कसीदाकारी रंगों की
मेरी स्मृति भी बरसों बरस बाद इतनी हरी
और पांखियों की ये शहद आवाजें
इतना अधिक मधुर स्वर इनमें
कि जो इधर 'जय श्रीराम' के उच्चार में गायब
इस हरी दुनिया के ऐन बीच
एक ठूंठ-सी देहवाले पेड़ पर यह कौन?
अरे! यह तो वही, एकदम वही हाँ! बाज!!
स्वाभिमान में उठी इतनी सुंदर गर्दन
किसी और की भला कैसे मुमकिन
उसकी चोंच के भीतर आगफूल जीभ
आँखों में सैनिक चौकन्नापन
इतिहास के नायक और फ़िल्मी हीरो के
हाथ पर नहीं बैठा वह
न ही उसके पंजे में दबा कोई जंतु
ठूंठ की निशब्द जगह में जो उदासी फैली
उसे भरता हुआ वह समागन*
गुम रहा अपनी ग्रीवा इत-उत
मैं कोई शिकारी नहीं
न मेरे हाथ में कोई जाल या कि बन्दूक
फिर भी कैसी थी वह आशंका आँखों में
एक अजब सी बेचैनी
कि पंखों के फडफड़ाने की ध्वनि के साथ ही
देखा मैंने उसे आसमान चीरते हुए
मेरे पाँव एकाएक उस ठूंठ की तरफ उठे
जहाँ वह था, मुझे भी चाहिए होना
कि सूख चुका बहुत अधिक जहाँ
पक्षी जल के अलावा चाहिए होना मनुष्य जल कुछ
*समागन : अत्यंत प्रिय व्यक्ति
मिथिलेश श्रीवास्तव
मिथिलेश श्रीवास्तव बिहार के गोपालगंज जिले के हरपुरटेंगराही गाँव में जन्मे| भौतिकी स्नातक तक की पढाई बिहार के साइंस कॉलेज पटना में हुई| नौकरी की तलाश में दिल्ली आना हुआ तब से दिल्ली में ही प्रवास| स्कूल के दिनों से ही कविता की ओर प्रवृत हो गए| कविता लिखने के साथ साथ समकालीन रंगमंच और चित्रकला और समसामयिक सामाजिक विषयों पर निरंतर लेखन |
पहला कविता संग्रह 'किसी उम्मीद की तरह' पंचकुला स्थित आधार प्रकाशन से छपा| दिल्ली राज्य की हिंदी अकादेमी द्वारा युवा कविता सम्मान से पुरस्कृत| दिल्ली विश्वविधालय के सत्यवती कॉलेज की साहित्य सभा उत्कर्ष के 'कविता मित्र सम्मान, २०११' से सम्मानित| 'सार्क लेखक सम्मान, २०१२' से सम्मानित | लिखावट नाम की संस्था के माध्यम से लोगों के बीच कविता के प्रचार- प्रसार का 'घर घर कविता', 'कैम्पस में कविता', 'कविता प्रसंग' 'कविता पाठ' सरीखे कार्यक्रमों का आयोजन| दिल्ली की अकादेमी आफ़ फाइन आर्ट्स एंड लिटीरेचर के कविता के 'डायलग' कर्यक्रम का संयोजक| सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में २००३ में हुए हिंदी भाषा 'कविता-सम्मलेन में कविता-पाठ| काठमांडू में बी पी कोइराला फाउनदेसन और नेपाल में भारतीय दूतावास की ओर से आयोजित भारत-नेपाल साहित्यिक आयोजन में काठमांडू में कविता-पाठ| हिंदुस्तान (हिंदी) दैनिक अख़बार में कला समीक्षक और जनसत्ता दैनिक अख़बार में रंगमंच समीक्षक के रूप में कार्य|
पढ़ते हैं मिथिलेश जी की कविता........
चप्पल झोला पर्स घड़ी
चप्पल झोला पर्स घड़ी अक्सर कहीं छूट जाने वाली चीजें हैं
अब यहीं मेरे जीवन के आधार हैं
इन्हीं को बचाए रखना मेरे जीवन का मकसद है साथी
यही है वे चीजें जो मुझे बचाए हुए हैं
चीजों की मनुष्यता को अब जाना है मैंने
कंधे से लटका हुआ झोला
अक्सर मुझे याद दिलाता है एक खोये हुए संसार का
जहाँ पहुचने से पहले बदल बरस जाते हैं
झोले के भीतर एक पैसे रखनेवाला पर्स हैबिना चेहरे की तस्वीरें रहती हैं उसमें
बच्चा पूछता था पर्स तुमने खो तो नहीं दिया दिखाओ मुझे
साफ करता हूं झोले को तो जिन्दगी की सारी गंदगी
मेरी आत्मा पर जम जाती है
मैं इतना काला तो नहीं था जितनी काली होती है कोयल
कुहुकती हुई पुकारती है किसी अदृश्य काल्पनिक असहाय प्रेमी को
उसे कोई कुछ नहीं कहता
कौन जनता पंख उसके कटे हों
चलते चलते भटकते भटकते
चप्पल के तलवे घिस गए हैं जैसे मेरी आत्मा
चप्पल तो ऐसे चरमरा रहा हैसे मेरा शरीर
घड़ी टिक टिक करती है मेरे मानों में
जैसे कोई रहस्य बोलना चाहती है
जैसे कोयल की कूक मै होता है
घड़ी जब बंद होती है तो एक पुरजा एक बैटरी एक बेल्ट
बदल जाने से चलने लगती है
चप्पल को सिलवाने की जरूरत अभी नहीं है
झोले के सीवन अभी उधरे नहीं है
झोले की ताकत मेरी चीजें सम्भाल लेती हैं
मेरे कंधे पर लटका वही मुझे कन्धा देता है साथी
नश्वर हैं सब चप्पल झोला पर्स घड़ी
जैसे नश्वर है मेरा शरीर पंचतत्वों मै विलीन होने को ब्याकुल
कोयल कब तक कूकेगी मेरे लिए उसका शरीर भी तो ब्याकुल होगा
पंचतत्वों मै विलीन होने के लिए .
हम में से हर एक का एक स्थायी पता है
लोग कहते हैं मैं जहाँ रहता नहीं हूँ
जहाँ मेरी चिठियाँ आती नहीं हैं
दादा या पिता के नाम से जहाँ मुझे जानते हैं लोग
अपना ही घर ढूढ़ने के लिए जहाँ लेनी पड़ती है मदद दूसरों की
पुश्तैनी जायदाद बेचने की गरज से ही जहाँ जाना हो पाता है
पिता को दो गज जमीं दिल्ली के बिजली शव दाह-गृह में मिली थी
वह पता मेरा स्थायी पता कैसे हो सकता है
लेकिन हम में से हर एक का एक स्थायी पता है
जहाँ से हम उजड़े थे
एक वर्तमान पता है जहाँ रहकर स्थायी पते को याद करते है
स्थायी पते की तलाश में बदलते रहते हैं वर्तमान पते
इस तरह स्थायी पते का अहसास कहीं गुम हो जाता है
एक दिन मुझे लिखना पड़ा कि मेरा वर्तमान पता ही स्थायी पता है
पुलिस इस बात से सहमत नहीं हुई
वर्तमान पता बदल जाने पर वह मुझे कहाँ खोजेगी
हम अब घोर वर्तमान में जी रहे हैं
तुम से क्या छिपाना तुम कभी लौटो
वर्तमान पतों की इन्ही कड़ियों में मेरे कहीं होने का सुराग मिलेगा
तुम भी कहती थीं जहाँ तुम हो वही मेरा स्थायी पता है
मालूम नहीं तुम किस रोशनी पर सवार हो, किस अँधेरे में गुम
लोकतांत्रिक देशों की पुलिस
वर्तमान पते पर रहनेवाले लोगों से स्थायी पते मांगती है
जिसका कोई पता नहीं पुलिस उसे संदिग्ध मानती है
बच्चे से पुलिस उसका पता पूछती है
बच्चा तो अपनी मां की गोद में छुप जाता है
वही उसका स्थायी पता ही वर्तमान पता है.
मनोज कुमार सिंह
सीवान बिहार में जन्म! हिंदी साहित्य में पी.एच-डी, डेल्ही विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में प्रोफ़ेसर! "भक्ति आन्दोलन और हिंदी आलोचना" पुस्तक प्रकाशित! हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित! दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी त्रौमासिक पत्रिका ‘अनभै साँचा’ में कुछ वर्षों से संपादन-सहयोग। मनोज जी 'डायलाग' और कविता-पाठ से सक्रिय रूप से जुड़े हैं! इनकी कवितायेँ सामाजिक कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करती हैं!
आईये पढ़ते हैं मनोज जी की कुछ कवितायेँ:
जनता का आदमी
वह सोचता था
और
जनता को ढूढ़ता था।
वह लिखता था
और
जनता को ढूढ़ता था।
वह जनता को
............... समझता था।
जब उसे पता चला
जनता उसे ............... समझती थी।
वह विद्रोही हो गया।
अब वह
जनता के
जिस हिस्से से
टकराता था
उसे ही खाता था।
देखते ही देखते
जनता का आदमी
आदमखोर हो गया।
लोगों ने पंचायत बुलाई-
जनता के आदमी से
निपटने के लिए मशालें जलाईं
और
रात के अंध्ेरे में
जनता का आदमी
जनता के हाथों मारा गया।
‘‘पद्मिनी नायिकाएँ’’
मेधवी
ढूढ़ रहे हैं
पद्मिनी नायिकाएँ
‘कुंदनवर्णी’!
रख रहे हैं
ख्याल
कुल-गोत्र का
हो रहे हैं-
विश्व-मानव!
उम्र के ठहराव पर
प्राप्त कर रहे हैं
अज्ञात यौवनाएँ।
‘‘ज्ञान में
समतुल्य
बेजुबान सहचर चाहिए’’
का दे रहे हैं-
विज्ञापन।
रच रहे हैं
विधन
ज्ञान का,
वैदिक रीति से प्राप्त कर रहे हैं
‘कन्या’
दान का!
पूरे इन्तजाम पर ला रहे हैं
विवाहिताएँ
उछलती-कूदती पसंद
के आधर पर लाई गईं
हो गईं-
‘कुलवंती’ ‘ध्ीरा’।
मर खप रही हैं
पुत्रा हेतु।
विज्ञान के सबसे क्रूर यंत्रा से गुजर रही हैं-
पद्मिनी नायिकाएँ।
पुत्रा की शिनाख़्त पर
बढ़ गयी है सेवा।
पति कूट रहे हैं
लवंग सुपारी का पान
ज़माने-भर का अपमान
चुकाने का बन गयीं हैं स्थान,
पद्मिनी नायिकाएँ।
रात-रात
दिन-दिन
जग रही हैं
कर रही हैं- सेवा
सापफ कर रही हैं
मल-मूत्रा
खा रही है मेवा
पद्मिनी नायिकाएँ।
और
इस तरह
जन रहीं हैं
भावी ‘मेध’
पद्मिनी नायिकाएँ।
उमेश कुमार चौहान

पूरा नाम: उमेश कुमार सिंह चौहान (यू. के. एस. चौहान)
जन्म: 9 अप्रैल, 1959 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ जनपद के ग्राम दादूपुर में
शिक्षा एवं अनुभव: एम. एससी. (वनस्पति विज्ञान), एम. ए. (हिन्दी), पी. जी. डिप्लोमा (पत्रकारिता व जनसंचार)। लखनऊ मेडिकल कॉलेज में मेडिकल जेनेटिक्स पर तीन वर्ष का
शोध-कार्य (1980-83), पंजाब व सिंध बैंक में डेढ़ वर्ष प्रोबेशनरी
ऑफीसर (1983-84), उत्तर
प्रदेश सिविल सेवा में दो वर्ष की प्रशासनिक सेवा (1984-86) तथा वर्ष 1986
से आज तक
भारतीय प्रशासनिक सेवा (केरल कैडर) में योगदान। केरल के अलावा इसी
अवधि में पाँच वर्ष
उत्तर प्रदेश सरकार में तथा छह वर्ष भारत सरकार में भी कार्य किया। वर्ष
1993-94 में
जापान सरकार द्वारा आयोजित ‘शिप फॉर वर्ल्ड यूथ’ कार्यक्रम में भारतीय युवाओं के दल का
नेतृत्व भी किया। केरल व भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए यू. एस. ए., यू. के., जापान,
जर्मनी, स्विटजरलैन्ड, ग्रीस, यू. ए. ई., सिंगापुर, श्रीलंका, मालदीव्स, दक्षिण अफ्रीका,
इथियोपिआ, नामीबिया, केन्या आदि देशों की यात्राएं की। वर्तमान में नई दिल्ली में केरल सरकार के रेजिडेन्ट कमिश्नर के रूप में तैनात हैं।
साहित्यिक गतिविधियाँ: पिता की प्रेरणा से बचपन से ही लेखन में रुचि। छात्र-जीवन में
विभिन्न स्थानीय साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े रहे तथा कवि-सम्मेलनों में भी भाग लिया।
हिन्दी व मलयालम की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कविताएं, कहानियाँ व लेख
प्रकाशित। प्रेम-गीतों का संकलन, ‘गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनी’ वर्ष 2001 में प्रकाशित
हुआ। कविता-संग्रह ‘दाना चुगते मुरगे’ वर्ष 2004 में छपा। वर्ष 2009 में अगला कविता-
संग्रह ‘जिन्हें डर नहीं लगता’ प्रकाशित हुआ। मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि अक्कित्तम की
प्रतिनिधि कविताओं के हिन्दी-अनुवाद का एक संकलन भी वर्ष 2009 में ही भारतीय ज्ञानपीठ
से छपा। मलयालम के अन्य प्रमुख कवि, जी. शंकर कुरुप्प, वैलोपिल्ली श्रीधर मेनन,
चेन्गम्पुड़ा, ओ. एन. वी. कुरुप्प, सुगता कुमारी, राधाकृष्णन तड़करा आदि की कविताओं का भी
हिन्दी-अनुवाद किया है। वर्ष 2009 में भाषा समन्वय वेदी, कालीकट द्वारा ‘अभय देव स्मारक
भाषा समन्वय पुरस्कार’ तथा 2011 में इफ्को द्वारा ‘राजभाषा सम्मान’ प्रदान किया गया।
अगला कविता-संग्रह ‘जनतंत्र का अभिमन्यु’ शीघ्र ही भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने
वाला है।
लिखावट के कविता-पाठ के लिए उमेश चौहान की कुछ कविताएं
1. युद्ध और बच्चे
एक माँ बुरका ओढ़े
अपने दुधमुँहे बच्चे को छाती से चिपकाए
बसरा से बाहर चली जा रही है
अनजान डगर पर
किसी इनसानी बस्ती की तलाश में
अपने अधटूटे घर को पलट-पलटकर निहारती
अपने बचपन व जवानी से बावस्ता गलियों को
आँसुओं से भिगोकर तर-बतर करती।
बच्चा गोद से टुकुर-टुकुर आसमान की ओर ताकता है
जैसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो
ऊपर उड़ते बमवर्षक विमानों की गड़गड़ाहट
चारों तरफ फटती मिजाइलों के धमाकों-
फौजियों की बंदूकों की तड़तड़ाहट-
इन सबसे उसका क्या रिश्ता है
वह नहीं जानता कि उसका बाप
‘अल्लाहो अकबर’ के नारे लगाता कहाँ गुम हो गया है।
बच्चा नहीं जानता कि क्यों जल रहे हैं-
चारों तरफ कीमती तेल के कुएँ
और लोग क्यों बेहाल हैं भूखे-प्यासे
बच्चा अपनी माँ की बदहवासी जरूर पहचानता है
और जानता है कि
उससे बिछुड़कर जी नहीं सकता वह
धूल और धुएँ के गुबार में कहीं भी।
उधर कश्मीर में मार दिए गए पंडितों के परिवार का
जीवित बच गया छोटा बच्चा भी
नहीं जानता कि ‘हे राम’ कहकर कराहते
गोलियों से छलनी उसके माँ-बाप कहाँ चले गए हैं
वह नहीं जानता कि उस दिन गाँव में आए
बंदूकधारियों के चेहरों पर
क्यों फैली थी वहशियत
और क्या हासिल करना चाहते थे
वे तड़ातड़ गोलियाँ बरसाकर ?
वहाँ फ्लोरिडा में माँ की गोद में दुबककर बैठा
मासूम बच्चा
अपने फौजी बाप को एयरबेस पर
अलविदा कहकर लौटा है
वह भी नहीं जानता कि क्यों और कहाँ
लड़ने जा रहा है उसका बाप
और क्यों दिखते हैं टेलीविजन पर
बख्तरबंद टैकों में बैठे अमेरिकी जवान
रेतीले रास्तों में भटकते
‘इन द नेम ऑफ गॉड’
आग का दरिया बहाते
नखलिस्तानों पर निशाना साधते।
दुनिया का कोई भी बच्चा
नहीं जानता कि लोग क्यों करते हैं युद्ध ?
जबकि इस दुनिया में
कल बड़ों को नहीं, इन्हीं बच्चों को जीना है।
युद्ध होता है तो
बच्चे ही अनाथ होते हैं
और आणविक युद्ध का प्रभाव तो
गर्भस्थ बच्चे तक झेलते हैं।
बच्चे यह नहीं जानते कि
क्यों शामिल किया जाता है उन्हें युद्ध में
किंतु वे ही असली भागीदार बनते हैं
युद्ध के परिणामों के।
काश ! दुनिया की हर कौम
युद्धों को इन तमाम बच्चों के हवाले कर देती
और चारों ओर फैले रिश्तों के
बारुदी कसैलेपन को
मुसकराहटों की बेशुमार खुशियों में
हमेशा-हमेशा के लिए भुला देती।
(ईराक-युद्ध के समय लिखी गई एक कविता)
2. कूड़ेदान
शहर के मोहल्लों में
जगह-जगह रखे कूड़ेदान
सुबह-सुबह ही बयां कर देते हैं
इन मोहल्लों के घरों का
सारा घटित-अघटित,
गंधैले कूड़ेदानों से अच्छा
कोई आइना नहीं होता
लोगों की जिन्दगी की
असली सूरत देखने का।
मसलन,
कूड़ेदान बता देते हैं
आज कितने घरों में
उतारे गए हैं
ताजा सब्जियों के छिलके
कितने घरों में निचोड़ा गया है
ताजा फलों का रस
कितने घरों ने पैक्ड फूड के ही सहारे
बिताया है अपना दिन और
कितने घरों में खोले गए हैं
रेडीमेड कपड़ों के डिब्बे।
झोपड़पट्टी के कूड़ेदानों से ही
हो जाता है अहसास
वहाँ कितने घरों में दिन भर
कुछ भी काटा या खोला नहीं गया
यह अलग बात है कि
झोपड़पट्टियाँ तो
स्वयं में प्रतिबिंबित करती हैं
शहर के सारे कूड़ेदानों को
क्योंकि इन्हीं घरों में ही तो सिमट आता है
शहर के सारे कूड़ेदानों का
पुनः इस्तेमाल किए जाने योग्य समूचा कूड़ा।
कूड़ेदान ही बताते हैं
मोहल्ले वालों ने कैसे बिताई हैं अपनी रातें
खोली हैं कितनी विदेशी शराब,
कितनी देशी दारू की बोतलें,
किन सरकारी अफसरों के मोहल्लों में
पी जाती है स्काच और इम्पोर्टेड वाइन,
किस मोहल्ले में कितनी मात्रा में
इस्तेमाल होते हैं कंडोम,
कभी-कभी किसी मोहल्ले के कूड़ेदान से
निकल आती हैं
ए के 47 की गोलियाँ और बम भी,
कभी-कभी किस्मत का मारा
माँ की गोद से तिरस्कृत
कोई बिलखता हुआ नवजात शिशु भी।
अर्थशास्त्रियो!
तुम्हें किसी शहर के लोगों के
जीवन-स्तर के आँकड़े जुटाने के लिये
घर-घर टीमें भेजने की कोई जरूरत नहीं
बस शहर के कूड़ेदानों के सर्वे से ही
चल जाएगा तुम्हारा काम
क्योंकि कूड़ेदानों से हमेशा ही झाँकता रहता है
किसी भी शहर का असली जीवन-स्तर।
तो दोस्तों आप सभी सादर आमंत्रित हैं कविता पाठ के इस अनूठे आयोजन में।
Bahut Sunder
ReplyDeleteBahut He Sunder laga in rachnawo ko phad ker. Congratulations
ReplyDeleteवाह ... बहुत ही बढिया।
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